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श्री कल्प
मूत्रे ।।४१३॥
लाम: =सुन्दरः स्फाल: उत्पलको यस्य तम्, तथा अम्बरतलात् = आकाशप्रदेशात् उच्छलन्तम् उत्पतन्तम्, तथानिजमुग्वकुहरं = स्वमुखबिलम् अभिपतन्तम् = अभिमुखमायान्तं सिंहं पश्यति ॥ मु० १७||
४ - लच्छी सुमिणे
खइय
मूलम् - तो पुण सा उच्च-विराइय- द्वाण - कया-सणं दिव्व-नव्त्र- भव्वाणणं कर-घरण-संठिय-सोस्थिय - संखं कुस - चक्काइ- सुह-रेहं सुकुमाल-कर- साहा - लेहं जच्चजण - भमर - जलहर गिगर- रिट्ठग-गवल-गुलियकज्जल - रोइ - सम-संहिय - तणुयर - मिउल - मंजुल - रोमावलिं फीय-गवणीय चिकण-पाणिरुहा-बलिं, कणग-कच्छव पिट्ठ- मट्ट-विसिट्ट-चरणजुगलं कुंडल-परिमंडिय-ललिय - कबोल - मण्डलं फार - हार - रायमाण - सव्वोउय - सुगंधिकुसुम - ललाम-दाम- परिणद्ध - वच्छ-स्थलं उन्नय - मंसल - मिउल - तणुलयं मंजुल - मणिगण-कण कंचण-कंची - वंचिय-कडितडं चंद्रद्र-सम-निलाडं नाणा- मणि-कणग- रयण-विमल - महातवणिज्ज - रइय-भूस- दार- हार- पाउत्तरयण कुंडल -वामुत्तग- हेमजाल - मणिजाल - कणगजाल-मुत्तग- तिलग फुल्लग - सिद्धत्थियकष्णवालिय- ससिर - उसभवक्कय - तलभंगय- तुडिय - हत्थमालय - हरिस - केकर - वलय - पालंव- अंगुलिज्जग-वलक्ख - दीणारमालिया - पयरग - परिहेरंग - पायजाल - घंटिय- खिखिणि-रयणो- रुजाल - छड्डिय - वरनेउर - चलणमालिया - कणगणिगल - जालग - मगर मुहविरायमाणनेउर - पचलिय - सद्दाल - रुइरा - भरणं लोहिय-कमल-दल-कोमलकर-चरणं विमल - कमल-दल - विशाल - लोयणं पाणिपल्लव - गहिय- भमर - निगर - विडंवि - लंबमाण - सोहंत-कय-निययं सुंदर-वय-कर-चरण - नयण - लावण्ण-रूत्र - जोन्त्रण - कलियं पडिपुण्ण- सव्वं - गोवंग-ललियं कर-चरणोमंग - मुहं - गोवंग- संगय-मणिगण-कंचण - रयण - रइया - भरण- किरण - नासियं धतमसं विगयमरिसं विमलकंति - समुज्जोइय-दस दिसं कमलागर - कमल-निवासिणि सयल - जण-मण- हियय- पल्हाइणि भगवदं विगसियकमल-दल-च्छि लच्छि पास ||०१८ ||
और त्रिशला के मुखरूपी गुफा में प्रवेश कर रहा था। ऐसे सिंह को त्रिशला देवी ने तीसरे स्वझ में देखा ॥ १७ ॥
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તે આકાશતલમાંથી ઉછળતા હતા અને ત્રિશલા દેવીના સુખરૂપી ગુફામાં પ્રવેશ કરતા હતા. એવા સિંહને ત્રિશલા દેવીએ ત્રીજા સ્વપ્નામાં જોયા (સૂ॰૧૭)
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कल्प
मञ्जरी टीका
लक्ष्मी स्वप्नवर्णनम् .
॥४१३॥
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