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________________ श्रीकल्पसूत्रे ॥४११।। Jain Education Intonal तत्र-सलिलविन्दुः=जलकणः, कुन्दं = पुष्पविशेषः, इन्दुः = चन्द्रः, तुषारः = हिमं, गोक्षीरं=गोदुग्धं, हारः=मुक्ताहारः दकरजः=मूक्ष्मतरजलबिन्दुः तद्वत् पाण्डुरतरं = श्वेततरं, तथा - रमणीय - प्रेक्षणीय - स्थिर - मसृणतर - करतलं, तत्र - रमणीये= सुन्दरे, प्रेक्षणीये - दर्शनीये, स्थिरे मसृणतरे = अतिचिक्कणे च करतले = हस्ततले यस्य तं, परिपुष्टसुश्लिष्ट - विशिष्ट-कुटिल- तीक्ष्ण- दंष्ट्रा - विडम्बित - मुखं - परिपुष्टाः = स्थूलाः, मुश्लिष्टाः = अन्तररहिताः - मिलिताः, विशिष्टाः = उत्तमाः कुटिलाः = वक्राः तीक्ष्णाच या दंष्ट्रास्ताभिः विडम्बितं युक्तं मुखं यस्य तम्, तथा - विमलकमल-कोमल - ललित - लोहित-दशन - वसनं - विमलं स्वच्छं यत् कमलं तद्वत् कोमले= मृदुले ललिते= सुन्दरे लोहिते = रक्ते दशनवसने = ओष्ठौ यस्य तम्, तथा - जपाकुसुम - पलाशा - लक्तक - रक्तकमलदल - मृदुल - लल-लम्ब - लालितलोल - रसनं, तत्र - जपाकुसुमं जवापुष्पं पलाश पलाशपुष्पं यद्वा - जपाकुसुमपलाश - जपापुष्पपत्रम्, अलक्तकः = 'लता' इति भाषाप्रसिद्धव, तद्वद् रक्ता . कमलदल - मृदुला = कमलपत्रवत्कोमला ललन्ती=चलन्ती लम्बा दीर्घा लालिता = लालां प्राप्ता लोला चञ्चला रसना = जिह्वा यस्य तम्, तथा धगधगतिज्वलद-नला न्तराल- मूषा- लसदा वर्तमाना-मल - कनक - शकल - वर्तुलविमल-चपला- विडम्बि नयनं, तत्र-धगधगिति = अतिशयितं चन्द्रमा, हिम, गाय के दूध, मुक्ताहार तथा सूक्ष्म जलकण के समान अन्यन्त श्वेत वर्ण का था । उसके दोनों पंजे रमणीय थे, दर्शनीय स्थिर थे और खूब चिकने थे। स्थूल, परस्पर सटी हुई, उत्तम, टेढ़ी और तीखी दाड़ों से युक्त उसका मुख था। उसके होठ निर्मल कमल के समान कोमल, मनोहर और लाल रंग के थे। जीभ जपा के फूल तथा पलाश के फूल अथवा जपा के फूल और पत्र के समान तथा महावर [अलता ] के समान लाल, कमल की पांखडी के समान कोमल, चंचल, लम्बी लार से युक्त और चपल थी । दोनों नेत्र धधकती हुई आग के मध्य में स्थित मूषा अर्थात् स्वर्ण को गलाने के साधन मिट्टी के पात्र में सुशो જળકણના જેવા અત્યન્ત શ્વેત રંગના હતા. તેનાં બન્ને પ ંજા રમણીય, દનીય, સ્થિર અને ઘણાજ સુવાળા हुता. स्थूण, खेड जील साथै भेडायेसी, उत्तम, बांडी, भने तीली हाढीवाणु भी तु तेना हो निर्माण उभण જેવાં કામળ, મનેાહર અને લાલ રંગના હતા. જીભ જપાનાં ફૂલ તથા પલાશનાં ફૂલ અથવા જપાનાં ફૂલ અને यानना नेवी तथा भडावर (अक्षता) ना नेवी साब, उभजनी पांगडी नेवी भण, संयम, सांजी, साणवाणी, मने ચપળ હતી. બન્ને આંખા સળગતી આગની વચ્ચે રહેલ સૂષા એટલે કે સેાનાને ગાળવાના માટીના પાત્રમાં સુંદર & Personal कल्प मञ्जरी टीका सिंहस्त्रमवर्णनम् . ॥४११॥ www.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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