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श्रीकल्प
मत्र ॥३८५||
कल्पमञ्जरी
टीका
तामेव दिशं प्रतिगतः प्रतिनिवृत्तः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य तामाज्ञप्ति क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयति भवदुक्तं सर्व मया विहितमिति शीघ्रमेव शकाय निवेदयतीति । 'तेरसीपक्खेणं' 'हत्थुत्तराहिं नक्वतेण' 'उवगएणं' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया बोध्येति ॥मू०१३॥
मूलम्-तए णं सा तिसला खत्तियाणी तसि तारिसगंसि चारु-छद्दारुय-वेरुलियाइ-विविह-माणिक्क-चित्तियमसिण-मणोहरा-रंभ-खंभो-वंत-कंत-सालभंजिया-मंजु-मणि-कंचण-यण-बंधुर-सिखर-निस्संक-विडंक-विसाल विविह-मणिजाल-विदल-चंद-पगासंत-बहुरूवं-करयण-रइय-सोवाण-परंपरा-निज्जह-समूह-सुंदरंतर-कणगकिंकिणी-कासि-कणयालिया-चंदसालिया-विविह-विभत्ति-कलिए रयण-खइय-मसिण-हेमकुई हंसगब्भ-यण-विरइय-विउल-दारे गोमेज्जग-मणि-रइय-इंदकीले चारु-लोहियक्ख-उज्जोइय-चोकटे मरगय-वजग्गल-ललिय-कवाडे पंचवष्ण-रयणविणिम्मिय-तोरण-विचित्ते दित्त-जोईस्यण-विरइय-चंदए चित्त-चित्तिय-फलिह-यण-हंसमालिया-तिरक्कय-गगणतल इंत-सच्चहंसे मंदाणिल-पेलिय-जंबूणयमय-पत्तल-सुत्तप्पोयु-जल-मणि-मोत्तिय-अल्लरी-निस्सरंत-छत्तीसराय-राइणी-गुंजिए सरस-णिरुवम-धाऊवल-राग-रंजिए, बाहिरी अइधवलियघटमटे, अभितरओ चित्तियविचित्त-पवित्त-चित्ते पवंचिय-पंचवण-मणि-रयण-कुहिमतले कमल-लया-कुसुमवल्ली-ललिय-पुष्फजाइ-चित्तालंकिय-उल्लोय-चंचिओ-वरितले कुसल-ललाम-कणग-कलस-सुरइय-पडिपुंजिय-सरस-सारस-सोहंत-दारभागे लबंत-सुवष्णप्पहाण-मणि-मुत्ता-ललाम-दाम-विरइय-दार-सुसमे सुगंध-बंधुर-कुसुम-मउल-पम्हल-सुकप्प-तप्पसोहिए हिययमणरंजए कप्पूर-लविंग-मलयय-चंदण-कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-उज्झंत-उन्भूय-मुरहिमघमघंत-गंध-बंधुरे सुगंधोद्धरगंधिए गंधवटिभूए मणि-गण-किरण-दूरीकयं-धयारे पंचवष्ण-रयणो-वसोहिए, डझंत-धूव-धूम-पडलं-चुय-कंते चित्त-रत्तमणि-रोई-सुविज्जुब्भाइए मिउ-मयंग-णिणाए मेह-जाल-भम-नचियवन्दना करके और नमस्कार करके जिस ओर से आया था, उसी ओर शीघ्र लौट गया। उसने शक्रेन्द्र को निवेदन कर दिया कि आपका कहा कार्य मैने सम्पन्न कर दिया है।मू०१३।।
राजभवन: वर्णनम्.
॥३८५॥
અનુભવાતી નથી. આ બધા દુઃખનું મૂળ કારણ "મને મય' પ્રવૃત્તિ છે.
ભગવાનનું લક્ષ “ અનાત્મક ભાવે તરફથી છૂટી, “આત્મભાવ' તરફ વળી ગયું હતું તેથી તેઓ દુઃખને हम नहीं आता. (२०१३)
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