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________________ श्रीकल्प कल्प मञ्जरी म टीका प्रकारा आधया मानसिकव्यथाः, व्याधयः ज्वरादयो रोगाश्च तेः प्रस्तानां पीडितानां प्राणिनां तापकलापगिरिभेदनकुलिशं-तापकलापः जन्मजरामरणादिजनितसन्तापसमूह एव गिरिः पर्वतः, तस्य भेदने विदारणे कुलिशंवज्रस्वरूपम् अर्हद्भाषितं तीर्थकरोक्तं धर्म विना अस्मिन् अपारे-दुस्तीय असारे-निस्तत्त्वे संसारे अन्यत् किमपि तीर्थकरप्रोक्ताद धर्मादतिरिक्तं किंचिदपि नालं- न समर्थ भवति, त्राणाय वा शरणाय वेति । मनागपि अल्पमपि। भृशम् अत्यन्तम्। मुधैव-Jथैव । जीवघना जीवाश्च ते घनाश्चेति क्षमा प्रदान करें और में प्रतिज्ञा करता हूँ कि 'आज पीछे ऐसा नहीं करूँगा' इस अकरण भाव से मैं उसका त्याग करता हूँ। . (१५) आज पीछे मैं षड्जीवनिकाय के समस्त जीवों को समभाव से देखता हूँ। मुझ समदर्शी के लिए सभी जीव बन्धु के समान हैं। (१६) रूप, यौवन, धन, कनक और प्रियजनों के समागम आंधी से क्षुब्ध हुए सागर की लहरों के समान चंचल हैं, बिजली की चमक के समान चपल हैं और कुशकी नोंक पर स्थित ओस के बिंदु की भाँति अस्थिर हैं। (१७) जन्म, जरा, मरण तथा नाना प्रकारको आधियाँ (मानसिक व्यथाओं) और व्याधियों (ज्वर आदि रोगों) से पीड़ित प्राणियों के, जन्म जरा मरण आदि से उत्पन्न हुए संताप के समूह रूपी पर्वत का विदारण करने में कुलिश (वन) के समान तीर्थकर भगवान् के द्वारा कथित धर्म के अतिरिक्त त्राण करने या शरण देने के लिए अन्य कोई समर्थ नहीं है। ४३ छ. वे पछी मे री नही. मा २४२५ (न ४२वाना) माया हु ना त्या ४३ छ: , (૧૫) હવે પછી હું છ જવનિકાયના સમસ્ત જીવોને સમભાવથી જોઇશ. મારા જેવાં સમદશીને માટે સર્વે જે બધુનાં જેવાં છે. જે (૧૬) રૂપ, યૌવન, ધન, કનક, અને પ્રિયજનેને સમાગમ આંધીથી ક્ષુબ્ધ થયેલાં સાગરની લહેરના જે ચપળ છે. અને કુશની અણી પર રહેલાં ઝાકળના બિન્દુની જેમ અસ્થિર છે. (૧૭) જન્મ, જરા, મરણ તથા વિવિધ પ્રકારની આધિ (માનસિક વ્યથાઓ) અને વ્યાધિ (જવર આદિ રોગો ) વડે પીડિત પ્રાણીઓના જન્મ, જરા, મરણ વગેરેથી ઉત્પન્ન થયેલા સંતાપના સમૂહરૂપી પર્વતનું વિદારણ કરવામાં ક િશ (વા) નાં જેવાં તીર્થકર ભગવાનના દ્વારા કથિત ધર્મના સિવાય ત્રાણુ કરવાં કે શરણ દેવા માટે બીજું કઈ શક્તિમાન નથી. म महावीरस्य एनन्दनामकः SL पश्चविशतितमो भवः। ॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only Purww.jainelibrary.org.
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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