SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पमञ्जरी टीका महाकपाः। यत्र गतो जीवो निपतितो दुरुधर एव भवति । एकैकेन्द्रियविषयैरागृहीताः कुरङ्गपतङ्गभङ्गमीनमातङ्गा हन्यन्ते । यः पुनर्जीवः पञ्चेन्द्रियाणां विषयैरागृहीतः, स चेत् हन्येत, तत्र किमाश्चर्यम् ! मधुरवंशी रवमाकर्ण्य मृगः श्रोत्रेन्द्रियविषयाकृष्टो वागरिकस्य वागुरायां नियतितो वध्यते ॥१॥ चक्षुरिन्द्रियविषयाकृष्टः श्रीकल्प पतङ्गो नृत्यन् दीपशिखायां भस्मीभवति ॥२॥ प्राणेन्द्रियविषयाकृष्टो भृङ्गः पद्मपरागरसमास्वादयन् मूर्येऽमुझे स्तमिते कमले संकुचिते बद्धो भवति, प्रभाते च करिणा कमलेन सह स कालीक्रियते ॥३॥ जिहेन्द्रियविष||२४७|| याकृष्टो मीनो बडिशग्रथितमांसं गिरन् हन्यते ॥४॥ वने स्वच्छन्दं विहरमाणः प्रचण्डपराक्रमोऽपि करी स्पर्शेन्द्रियविषयाकृष्टतया कृत्रिमकरेणुं स्पृशन् हस्तिपालैबद्धा निशिताङ्कुशप्रहारेण पराधीनः क्रियते ॥५॥ इदं हुए जीव का उद्धार होना कठिन है। एक-एक इन्द्रिय के विषय में आसक्त हिरन, पतंग, भ्रमर, म और हाथी मृत्यु के पात्र होते हैं। ऐसी स्थिति में जो जीव पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त है, वह प्राणों से हाथ धो बैठे तो आश्चर्य की बात ही क्या है! देखिए न, बंसी के मधुर स्वर को सुनकर हिरन श्रोत्रेन्द्रिय के विषय से आकर्षित होकर व्याध के जाल में पड़कर मौत का शिकार हो जाता है (१)। चक्षु-इन्द्रिय के विषय से आकृष्ट हुआ पतंग नाचता हुआ दीपक की शिखा में अपने प्राण दे देता है (२)। नासिका-इन्द्रिय के विषय से आकृष्ट हुआ भ्रमर कमल के पराग-रसका आस्वादन करता हुआ, मूर्य के अस्त होने से कमल के सिकुड़ जाने पर उसी में बंद हो जाता है। प्रभात होते न होते हाथी उसे कमल के साथ ही निगल जाता है (३) जीभ के वशीभूत हुई मछली बडिश-वंशी में लगाये हुए मांस को खाने जाती है कि स्वयं ही खाई जाती है (४)। वनमें करें स्वच्छन्द विचरण करने वाला और प्रचण्ड पराक्रमसे सम्पन्न भी हाथी, स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत होकर મધુર સ્વર સાંભળવાની લાલચમાં હરણ પારધિએ વડે પકડાય છે (૧). રૂપના મોહમાં તણાઈ જવાથી પતંગી આગમાં ઝંપલાવે છે, અને બળીને ખાખ થાય છે (૨). ગંધ મેળવવાની ઈચ્છાએ, ભમર ફૂલ તરફ આકર્ષાય છે અને પરિણામે સંધ્યાકાળે બીડાઈ જઈ હાથીને કેળીયો થઈ જાય છે (૩). જીભને વશ થનારી માછલી લેઢાના સળીયા પર, વીંટાળેલા માંસની ગોળીઓને ખાવા જતાં કાંટે મોઢામાં લે છે ને અંતે મરી જાય છે અને માછીમારે તેને લઈ જાય છે (૪). હાથી હાથણીને સ્પર્શ કરવા દોડે છે પણ હાથણીને બદલે ખાડા તાર ઉપર પાટીયા બેઠવી તેના ઉપર રાખેલી લાકડાની કૃત્રિમ હાથણીને અડવા જતાં, વયે પિતાના ભાર વડે લાકડાં EL महावीरस्य । त्रिपृष्ठनामकः सप्तदशो भवः। ॥२४७|| કેર Savirww.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy