SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पमञ्जरी टीका पुनः वारं वार प्रतिबोध्य-जिनोपदिष्टं धर्मम् उपदिश्य प्रव्रज्यार्थदीक्षाग्रहणार्थ मुनिसमीपे ऋषभदेवानुगतसाधनां समीपे प्रेषयति । ततः खलु एकदा तस्य मरीचेः शरीरे कासवासादिकाः १ कास-२ श्वास-३ ज्वर-४ दाह ५ कुक्षिशल-६ भगन्दरा-७ झेड-८ जीर्ण-९ दृष्टिशल-१० मूर्धशला-११ ऽरोचका-१२ ऽक्षिवेदनाश्रीकल्पसूत्रे १३ कर्णवेदना-१४ कण्ठवेदनो-१५ दरवेदना-१६ कुष्ठानि षोडशसंख्यका रोगातङ्का:-रोगा: कासश्वासज्वर॥२०१॥ दाहादयः, आतङ्काः शीघ्रघातिनः शूलादयः, यद्वा-रोगाश्च ते आतङ्काः कष्टमयजीवितकारिणश्चेति ते प्रादुरभूवन्मादुर्भताः। तेन कारणेन ग्लानि दैन्यम् आपन्नः स मरीचिमनसि चिन्तयति=विचारयति-यद्यहं व्याधिमुक्तो नीरोगो भविष्यामि, तदा कमप्येक शिष्यं करिष्यामि, यो मां परिचरिष्यतीति । एवम्-उक्तप्रकारेण विचिन्तयतस्तस्य-मरीचेः अन्तिके-समीपे धर्मकामी-धर्माभिलाषी कपिलनामा एकः कुलपुत्रः समागतः । तं कपिलं मरीचिर्जिनधर्म-जिनोपदिष्टं धर्म वर्णयित्वा उपादिशत-उपदिष्टवान्। को बार बार जिनेन्द्र-कथित धर्म का उपदेश देकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए ऋषभदेव के अनुयायी साधुओं के पास भेज देता था। एकवार मरीचि के शरीर में (१)-कास-खांसी (२)-श्वास (३)-ज्वर (४)-दाह (५)-कुक्षिशूल (६)-भगंदर (७) अर्श-बवासीर (८)-अजीर्ण (९) दृष्टिशूल (१०)-मूर्धशूल-शिरोवेदना (११)अरोचक-अरुचि (१२)-नेत्रपीड़ा (१३)-कर्णवेदना (१४)-कंठवेदना (१५)-उदरवेदना और (१६)-कुष्ठकोढ़, यह सोलह रोग, अर्थात्-कासश्वास आदि तथा आतंक, अर्थात्-शीघ्र घात करने वाले शूल आदि, अथवा जीवन को कष्टमय बना देने वाले रोग रूप आतंक उत्पन्न हो गये। इस कारण से ग्लानि को प्राप्त मरीचि ने मन में विचार किया-अगर मैं नीरोग हो जाऊँगा तो किसी भी एक को अपना शिष्य बना लूंगा जो मेरी सेवा-शुश्रूषा करेगा। इस प्रकार विचार करते हुए उस मरीचि के समीप धर्म की अभिलाषा करने वाला कपिलनामक एक कुलपुत्र आ गया। उस कपिल को मरीचि ने जिन-प्ररूपित धर्म का वर्णन करके उपदेश दिया। मरीचि द्वारा उपदिष्ट जिनधर्म को सुनकर कपिल ने मरीचि से पूछा-'यदि जिनधर्म सर्वोत्तम નિર્ણય અને જ્ઞાન કેવળ ભાષિત અને પ્રરૂપિત હતું. ભગવાન નિર્વાણુ પધાર્યા બાદ પણ દીક્ષા પર્યાય માટે કઈ પણ આગંતુકને પ્રભુના શિષ્ય પાસે જ એકલતે, કઈક સમયે પિતાને સોલે રેગ ફાટી નીકળ્યા છે ને કેઈ સેવાપર ચાકરી કરનાર શિષ્ય હોય તે ઠીક એમ ભાવ થવાથી કપિલ નામના વ્યક્તિને દીક્ષા આપી શિષ્ય તરીકે અંગીકાર महावीरस्य मरीचिनामकः तृतीयो भवः। ॥२०१॥ d.ww.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy