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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
मत्र
॥१९६॥
टीका
परिज्ञानरहितो जनः तत्वं वास्तविकमर्थ न विनिश्चिनोति, तथा-अभिमानविषमविषज्वालकवलिते-अभिमानः= जातिकुलाद्यहङ्कारः, स एव विषमविषम् अत्युत्कटविषम् , तस्य ज्वालेन ज्यालया कवलिते-दग्धे, मनस्तरौ= मनोरूपे वृक्षे ज्ञानपल्लवम् ज्ञानरूपम् अभिनवं पत्रं न परोहति समुत्पद्यते। अभिमानो ज्ञानस्य सर्वथा विनाशक इत्यर्थः। पुनरप्यभिमानस्य दुष्फलत्वमाह-जीवानां मनोगगनाङ्गणे-मन एव गगनं-मनोगगनं तस्य अङ्गणे= क्षेत्रे मनागपि=किंचिदपि मानमेघे मानरूपे मेघे समुद्गते समुत्पन्ने सति हृदयभूमौ तृष्णा विषलता सधः= तत्क्षणे परोहतियादुर्भवति। मानस्तृष्णाजनक इत्यर्थः। सा तृष्णा च हिमराजि=हिमसंहतिः राजीवराजिमिव कमलबनमिव ज्ञानादिगुणश्रेणि पणिहन्ति=विनाशयति । यथा हिमसमहेन कमलवनविनाशस्तथैव मानेन ज्ञानादिगुणानां नाशो भवतीति भावः। तथा-सा तृष्णा मदिरेव-सुरेव दुस्त्यजमोहसन्दोहजननी-दुस्स्यजो यो निश्चय नहीं करता नहीं कर सकता। जाति कुल आदि का अभिमान बड़ा ही उग्र विष है। जब मनरूपी वृक्ष उस अभिमानकी ज्वाला से जल जाता है तो उस मनरूपी वृक्ष में ज्ञानकी कोपलें नहीं फूट सकती। अभिप्राय यह है कि अभिमान ज्ञान का पूरी तरह से नाश कर देता है।
अभिमान का दुष्फल फिर बतलाते हैं-जीवों के मनो-गगनरूप आंगन में अर्थात् हृदयरूपी क्षेत्र में लेशमात्र भी मानरूपी मेघ का उदय होता है तो उस हृदय-क्षेत्र में तत्काल ही तृष्णारूपी विष की वेल उग आती है। अर्थात् मान तृष्णा का जनक है। वह तृष्णा ज्ञानादि गुणों के समुदाय को उसी प्रकार समूल नष्ट कर देती है, जैसे हिम-समूह कमल-उनको नष्ट कर देता है। आशय यह है कि जैसे हिम के समूह से कमलों के वन का विनाश होता है, उसी प्रकार मान से ज्ञान आदि गुण-गण का विनाश हो जाता है। इसके अतिरिक्त वह तृष्णा मदिरा की तरह अपरिहार्य मोह के समूह की जननी है માણસ હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી વિકલ હોય છે તે વાસ્તવિક વાતને નિર્ણય કરતા નથી, કરી શકતું નથી. જાતિ, કુલ વગેરેનું અભિમાન ભારે ઉગ્ર વિષ છે. જ્યારે મનરૂપી વૃક્ષ એ અભિમાનની જવાળાથી જળવા લાગે છે ત્યારે એ મનરૂપી વૃક્ષમાં જ્ઞાનની કુંપણે ફૂટી શકતી નથી. તેને સાર એ છે કે અભિમાન જ્ઞાનને પૂરેપૂરી રીતે નાશ કરી નાખે છે.
અભિમાનનું ખરાબ પરિણામ શાસ્ત્રકાર ફરીથી બતાવે છે–જીનાં મને ગગન રૂપી આંગણામાં એટલે કે હૃદયરૂપી ક્ષેત્રમાં સહેજ પણ અભિમાનરૂપી મેઘનો ઉદય થાય તે તે હદય ક્ષેત્રમાં તરત જ તપગારપી વિશ્વની
महावीरस्य मरीचिनामकः
तृतीयो
भवः।
॥१९६॥
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