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श्रीकल्पसूत्रे
॥ १९४॥
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कमलप्रधानं, पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेत्युपमितिसमासे पुरुषवरपुण्डरीकम् । भगवतस्तीर्थकरस्य पुण्डरीकोपमा विनिशुभमलीमसत्वात् सर्वैः शुभानुभावैः परिशुद्धत्वाच्च बोध्या । यद्वा- पुण्डरीकं पङ्काज्जातमपि सलिले वर्द्धितमपि च पङ्कजलसम्बन्धमपहाय निर्लेपमित्र जलोपरि रमणीयं दृश्यते, निजानुपमगुणबलेन सुराम्ररनिकरशिरोधारणीयतयाऽतिमहनीयं परमसुखास्पदं च भवनि तथैव तीर्थकरः कर्मपङ्काज्जातो भोगाम्भोवर्द्धितः सन्नपि निर्लेपस्तदुभयमतिवर्त्तते, गुणसम्पदास्पदतया च केवलादिगुणभावादखिलभव्यजन शिरोधारणीयो भवतीति । तथा विमलकुलसंभत्रः = निर्मलकुलोत्पन्नः, महासत्त्वः - महत् सत्वं बलं यस्य स तथा महाबलशालीत्यर्थः । तथासागरवरगम्भीरः–सागरवरः = सकलसमुद्रेषु श्रेष्ठः स्वयंभूरमणनामा समुद्रः, तद्वद् गम्भीरः = परीषहोपसर्गाक्षोभ्यस्वादिति । तथा-चन्द्रादपि - क्षालिताखिलकर्ममलत्वाच्चन्द्रापेक्षयाऽपि निर्मलतरः = अतिशयितनैर्मल्यभाक्, तथा - सूर्यादयधिकप्रकाशकरः = मिथ्यात्वादितिमिर विनाश कात्युत्कृष्ट केवलाऽऽलो केनाखिललोकालोकप्रकाशकत्वेना ssदित्यादप्यधिकमकाशकरः । एवंविधोऽहं नाम्ना महावीरश्वरमस्तीर्थकरो भविष्यामि । अहो ! मम संग-सा जल के ऊपर रहता और रमणीय दिखाई देता है तथा अपने असाधारणगुण के कारण सुर-असुर आदि के सिर पर धरने योग्य होने के कारण अत्यन्त आदरणीय और परमसुखदायी होता है, उसी प्रकार तीर्थंकर कर्मरूपी कीचड़ से उत्पन्न हुए और भोगरूपी जल में वृद्धि को प्राप्त करके भी अलिप्त रहकर कर्मों और भोगों का अतिक्रमण करके रहते हैं तथा गुणों की सम्पदा के पात्र केवलज्ञान आदि गुणों के आधार होने से भव्य जीवों के शिरोवन्दनीय होते हैं ।
मरीचि फिर सोचता है- 'मैं निर्मल कुल में जन्म लूँगा । महाबलशाली होऊँगा । सागरवरगंभीर अर्थात् परीषों और उपसर्गों आदि से क्षुब्ध न होने के कारण स्वयंभूरमण समुद्र के समान गंभीर होऊँगा । निखिल कर्म - मल को धो डालने के कारण चन्द्रमा से भी अधिक निर्मल तथा मिथ्यात्व आदि रूप अन्धकार का विनाश करने के कारण तथा केवलज्ञानरूपी आलोक से अखिल लोक एवं अलोक को आलोकित कर लेने के कारण सूर्य से भी अधिक प्रकाशकारी होऊँगा ! मैं इन सब गुणों से विभूषित महावीर नामक चौवीसवाँ तीर्थंकर होऊँगा । '
• यना, अद्भुत आत्मयरा भी महान वैराग्यवान ठेवल-ज्ञान-दर्शन उपयोगवाणी, यरम तीर्थ ४२ पशु यश. સતી કરામાં મારા દાદા પ્રથમ તીર્થંકર છે, સવ ચક્રવતી એમાં મારા પિતા પ્રથમ ચક્રવતી છે, અને
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कल्पमञ्जरी टीका
महावीरस्य
मरीचि -
नामकः
तृतीयो
भवः ।
॥ १९४ ॥
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