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________________ श्रीकल्प मञ्जरी ॥१९३॥ टीका तथा-पूर्वकृततपःप्रभाव:-पूर्वकृत पूर्वजन्मनि विहितं यत्तपः, तस्य प्रभावो यस्य स तथा-जन्मान्तरीयतपस्तेजःसम्पन्न इत्यर्थः, तथा-निविष्टसंचितसुखः-निर्विष्टं लब्धं संचित पूर्वजन्मसु संचयीकृतं सुखं येन स तथा-पूर्वजन्मसंचितसुखमाप्तिकर्तेत्यर्थः, तथा-नरवृषभानरश्रेष्ठः, विपुलविश्रुतयशाः-विपुलं-दिगन्तव्यापि विश्रुतं प्रसिद्धं कल्पयशो यस्य स तथा-दिगन्तव्याप्तकीर्तिसम्पन्न इत्यर्थः, तथा-शारदनभस्तनितमधुरगम्भीरस्निग्धघोषः-शारद-शरस्कालिकं यद नभः मेघस्तस्य यत् स्तनितं-गर्जितं, तदिव मधुरो गम्भीरः स्निग्धो घोष: शब्दो यस्य स तथा, शरत्कालिकमेघगर्जितसदृशमधुरगम्भीरस्निग्धधनियुक्त इत्यर्थः, सम्माप्तसकलजनमनस्तोषः-सम्प्राप्तः सकलजनानां मनसा कर्तभूतेन तोषः सन्तोषो यस्मात् स तथा-अखिलजनमनःसन्तोषकारक इत्यर्थः, एवंविधः पितृसदृशः प्रियमित्रो नाम चक्रवर्ती भविष्यामि ४। किंबहुना ? अत्र भारते वर्षेऽस्यामेव अवसर्पिण्याम पुरुषसिंहः-पुरुषेषु सिंहो रागद्वेषादिशत्रुपराजये दृष्टाद्भुतपराक्रमत्वात्, यद्वा-पुरुषः सिंह इवेत्युपमितिसमासः, सिंहसदृशपराक्रमशाली, तथा पुरुषवरपुण्डरीकं-पुण्डरीकं श्वेतकमलं वरं च तत् पुण्डरीकं वरपुण्डरीकं श्वेत- महावीरस्य होगा ! मैं पूर्वजन्म में संचित सुखों को प्राप्त करूँगा। मनुष्यों में उत्तम गिना जाऊँगा। दिग-दिगन्त में मरीचिमेरा यश फैलेगा। शरत्कालीन नवमेघगर्जना के समान मधुर, गंभीर और स्निग्ध मेरी ध्वनि होगी। सब नामकः लोगों को मुझसे सन्तोष प्राप्त होगा। मैं अपने पिता के समान ही प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती बनूंगा। मारे तृतीयो भवः। अधिक क्या, इसी भारतवर्ष में, इसी अवसर्पिणी काल में चरमतीर्थकर बनूँगा। तब मैं राग-द्वेष आदि शत्रुओं का पराजय करने में अद्भुत पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, तथा पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान हो जाऊँगा। सब प्रकार की अशुभ-मलीनता से रहित होने के कारण तथा सब प्रकार के शुभ अनुभावों से विशुद्ध होने के कारण भगवान् तीर्थकर को पुण्डरीक की उपमा दी जाती है। अथवा जैसे पुण्डरीक पंक से पैदा होने पर भी और जल में वृद्धि पाने पर भी पंक और जल પણ થઇશ. કેશ અને દંડ આદિના પ્રભાવથી મારા પ્રતાપ અત્યંત પ્રખર સૂર્યના પ્રતા૫ની સમાન થશે. પૂર્વભવમાં કીધેલ તપને પ્રભાવ મને પ્રાપ્ત થશે. હું પૂર્વજન્મના સંચિત સુખને પ્રાપ્ત કરીશ. મનુષ્યોમાં ઉત્તમ ॥१९३॥ ગણાઈશ. દશે દિશાઓમાં મારો યશ ફેલાશે. શરકાલના મેઘની સમાન મધુર ગંભીર અને સ્નિગ્ધ મારી વનિ થશે. બધા લોકેાને મારાથી સંતોષ પ્રાપ્ત થશે. હું પિતાના પિતાની સમાન જ પ્રિય મિત્ર નામને ચક્રવતી બનીશ. વધારે શું ! આ જ ભરત ક્ષેત્રમાં, આ જ અવસર્પિણી કાલમાં, રાગદ્વેષ રહિત શુભ અશુભ મલિનતાઓ સિવા- 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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