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________________ श्रीकल्प मूत्रे ॥१८८॥ तीर्थकरश्च भविष्यसि, अतस्तीर्थकरत्वेन भाविन-भविष्यत्तीर्थकरं त्वां वन्दे नमस्करोमि। निजपितुर्भरतचक्रिण एवं वचनश्रवणेन पापभारः पापसमूहरूपः स्फारः अतिशयः कुलमदो मरीचिम् आविशत् । नात्र चित्रम् , यद् मरीचिः कुलमदेनाकान्तः ! यतः कुलादिकृतो मदः समयमासाद्य-समयं प्राप्य विहङ्गमः-पक्षी नीडमिव पक्षिनिवासस्थानमिव सद्यः तत्क्षणे एव जनमाविशति, इति हेतोः स मरीचिस्तत्क्षण एव अपारसंसारकान्तारपरिभ्रमणकारकम्-अपारः निरवधिको यः संसारः चतुर्गतिकरूपः, स एव कान्तारंन्दुर्गमो मार्गों रागद्वेषादिलुण्टकाऽऽ- कीर्णत्वात् , तत्र यत्परिभ्रमणं-पुनः पुनर्जन्ममरणं, तस्य कारकम् , तथा-सकल-सुखतस्मूलोन्मूलकम्-सकलानिक ऐहिकपास्लौकिकानि समस्तानि यानि सुखानि फलोपमानि तेषां तर वृक्षो धर्मस्तस्य मूलं विनयस्तस्य उन्मूलकं विनाशकं मानहालाहलं-मानोऽत्र कुलमदः, स एव हालाहलं महाविषं तत्-कुलमदरूपं कालकूटविषम् कल्पमञ्जरी मा टीका नामक प्रथम वासुदेव, फिर पश्चिम महाविदेह की मूका नगरी में प्रियव्रत नामक चक्रवर्ती और फिर इस दक्षिण भरतक्षेत्र में महावीर नामक चरम तीर्थकर होओगे; अत एव तुम को मैं नमस्कार करता हूँ।' अपने पिता भरत चक्रवर्ती के इस प्रकार के वचन सुनकर मरीचि में पापों का पिण्ड, घोर, कुलमद प्रवेश कर गया, अर्थात् कुल का मद उत्पन्न हो गया। मरीचि को कुलमद उत्पन्न हो गया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। क्यों कि कुल आदि का मद अवसर पाकर मनुष्य में उसी तरह प्रवेश कर लेता है, जैसे पक्षी नीड-घोसले में प्रवेश कर लेता है। इस कारण मरीचिने उसी समय अनन्त, चारगति रूप तथा राग-द्वेष आदि लुटेरों से व्याप्त होने के कारण दुर्गम संसार-कान्तार में पुनः पुनः भ्रमण करने के कारणभूत और समस्त मुख रूपी फलों के वृक्ष धर्म के मूल अर्थात् विनय को उखाड़ कर फेंक देनेवाले कुलमदरूपी हालाहल-कालकूट को पी महावीरस्य मरीचिनामकः तृतीयो भवः। मार PE જે આન્નતિ મેળવી હતી તે ક્ષણવારમાં “અહંભાવને લીધે ખોઈ બેઠો ને ચતુગતિની ચોપાટ ખેલવાની ભાજી २३ ४६ हीधी. 'मार-मनिभान-मा-मता-ममत्व मा' 20 सपा पर्यायवाय शहा छ. तमाમને અર્થ એક જ છે, આ મુખ્ય દુર્ગણ તેમામ નાના મોટા દુર્ગાને નેતરે છે, ને “ અહંભાવ” મધ્યબિંદુ માં રાખી આત્માને સર્વાશે ફેલી ખાય છે. આત્માથી પુરુષને સમયે સમયે પિતાને સૂક્ષમ ઉપયોગ રાખી આ દુર્ગુણમાંથી છુટવાને પ્રયત્નશીલ રહેવું યોગ્ય છે. જગતના સર્વોત્કૃષ્ટ પદાર્થોથી માંડી દેહ સુધીના પદાર્થોને આ જીવે છે 25avw.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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