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________________ मुत्र कल्पमञ्जरी टीका हर जिनोपदिष्टधर्मसंस्कारः-हृदये=अन्तःकरणे स्थितः दृढतया संलग्नः जिनोपदिष्टस्य धर्मस्य सस्कारो यस्य स तथा-अपरि त्यक्तजिनधर्मसंस्कारः, चारित्रप्रासादक्षान्तिमुक्तिप्रभृतिसोपानावस्खलिता-चारित्रप्रासादस्य-संयमरूपराजभवनस्य यत् । क्षमानिर्लोभतादिरूपं सोपान=निःश्रेणिः, तस्मात्-च्युतोऽपि सन् , ऋषभदेवगुणग्रामगानरश्मिम्-ऋषभदेवस्य ये श्रीकल्प गुणग्रामाःगुणसम्हास्तेषां यद् गानं तदेव रश्मिः=रज्जुस्तम् , अबलम्बमानः आश्रयन् सर्वथा सम्यक्तया मिथ्यात्व॥१७८॥ भूतलप्रदेशे-मिथ्यादृष्टित्वरूपभूमितलपदेशे नो पतितः। यतः यस्माद्धेतोः, उच्छलद्दयाऽमृतधार: दयापरिपूर्णहृदयः स: मरीचिःभविकजनान् भव्यजनान् जिनोपदिष्टं तीर्थकरमोक्तं चारित्रधर्मसंयमधर्म मुहमुहः पुनः पुनः, उपदिश्यउपदेशं कृत्वा प्रभुसमीपेन्ऋषभदेवस्वामिपाचे प्रव्रज्यार्थ-दीक्षार्थ, प्रेषितवान् । सत्यं यथार्थम् . यत् जनानां लोकानां हृदयतः पूर्वसंस्कारः कृमिकराग इव प्रायेण बाहुल्येन न निवर्तते नागपच्छतीति ।। सू०११॥ मूलम्-तए णं एगया कयाइ जगसतावकलावनिकंदणो नाहिनंदणो पहू विणीयाए णयरीए समोसरिओ। तस्थ देवरइयसमोसरणे विरायमाणो उसभजिणो देवासुरतिरियमणुयपरिसाए सयसयभासापरिणामिणीए गिराए धम्म कहेह । धम्मदेसणासमणंतरं भगवं पज्जुवासमाणो भरहचकवट्टी तं पुच्छेइ-भदंत ! वट्टइ कोवि देवाणुप्पियाणं समोसरणे एयारिसो जीवो जो अणागयकाले बलदेवो वासुदेवो चकवट्टी तित्थयरो वा भविस्सइत्ति । तओ महावीरस्य मरीचिनामकः तृतीयो भवः। DESIBLORECARAMpmaan हा, त्रिदण्डी होजाने पर भी मरीचि के हृदय में जिनोपदिष्ट धर्मका संस्कार स्थित था। उसने उस संस्कार का त्याग नहीं किया। संयम रूप राजमहल की क्षमा, मुक्ति (निर्लोभता) आदि जो सोपानसीढ़िया हैं उनसे च्युत हो जाने पर भी, ऋषभनाथ भगवान् के गुणों के समूह का गान रूप रस्सी सहारा लेता हुआ वह पूरी तरह से मिथ्यात्वरूपी भूमिभागतक नहीं पहुँचा। मरीचि के हृदय से दया के अमृत की धारा छलक रही थी-उसका अन्तःकरण करुणा से परिपूर्ण था। अतः वह भव्य जीवों को तीर्थकर द्वारा कथित संयमधर्म का वारंवार उपदेश करके भगवान् ऋषभदेव के पास दीक्षा के लिये भेजता था। सच है, मनुष्यों के हृदय से पहले का संस्कार प्रायः कृमिराग (पक्के रंग) की तरह हटता नहीं है। सू०११॥ માં મેં આ “ ત્રિદંડી' ના વેષને ધારણ કર્યો છે. તાત્પર્યમાં એકે તેમનાં હૃદયમાંથી પૂર્વના સંસ્કાર ભરમીભૂત થયાં मानतi, ५ भसयागे मायार-वियानु पासन ५२वामा ढाथ भावीत. (२०११) ॥१७८॥ A ww.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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