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________________ श्रीकल्प कल्प मत्र टीका-'तए णं' इत्यादि । ततः तदनन्तरम् खलु भक्तिभावसमाकृष्टः-भक्तिभावेन समाकृष्टः-भक्तिवशो मुनिवरिष्ठ: मुनिश्रेष्ठः, उत्कृष्टभावसारस्य उत्कृष्टभक्तिभावसम्पन्नस्य नयसारस्य आवासं निवासस्थानम् अनुपविष्टः । ततः तदनन्तरम्, प्रसन्नहृदयः प्रहृष्टमानसः, सविनय-विनयसहितः नयसारः एवं वक्ष्यमाणं वचनमवादीत-भदन्त ! यथा-सुतरुः उत्तमवृक्षः पुष्पं विनैव फलेत, मरौ-मरुदेशे अनभ्रा-मेघरहिता जलसृष्टिः, दीनसदनेन्दरिद्रगृहे सुवर्णदृष्टिश्च भवेत, तथा अद्य ममाङ्गणे भगवतः चरणकमलरजःपातो जातः । भगवतः ज्ञानरूपैश्वर्यादिषट्कसम्पन्नस्य भगवतः दर्शनेन-विलोकनेन, अहं नयसारः, पीयूपपानेन अमृतपानेनेव प्रीणितः सन्तुष्टोऽस्मि । एवम् इत्थम् व्यक्तभक्तिधारः द्रव्यभावविनयसम्पन्नो नयसारो मुनिवरं स्तुत्वा पासुकैषणीयैर्विपुलैः पुष्कलैः, अशनपानखादिमस्वा मञ्जरी ॥१६७॥ टीका टीका का अर्थ-'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् भक्तिभावसे खिंचे हुए, अर्थात् भक्ति के वशीभूत हुए मुनिवर उत्कृष्ट भक्तिभाव से सम्पन्न नयसार के निवास स्थान में प्रविष्ट हुए। तब प्रसन्नचित्त और विनय से युक्त नयसार ने इस प्रकार वचन कहे-भगवन् ! जैसे कोई उत्तमक्ष फूलों के विना ही फल जाय, मरुदेश में विना ही मेघों के वर्षा हो जाय और दरिद्र के घर में सोना वरस पड़े, उसी प्रकार आज मेरे आंगन में आपके चरण-कमलों का पराग गिरा है । भगवान् अर्थात् परिपूर्ण ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न से सम्पन्न आपके दर्शन से मुझे ऐसी प्रसन्नता हुई है, जैसे मैंने अमृत पिया हो। इस प्रकार द्रव्य एवं भाव विनय से विभूषित नयसार ने मुनिवर की स्तुति करके प्रामुक (अचित्त ) तथा एषणीय (निर्दोष ) विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य रूप चार प्रकार के आहार से प्रतिलाभित किया । इसके पश्चात् वन महावीरस्य नयसारनामका प्रथमो भवः। भूल भने सानो अर्थ-'तपण' त्याहि. त्या२ पछी तिमाथी आष्ट भुनिमारा नयસારના નિવાસ સ્થાને પધાર્યા. મુનિને જોતાં જ નયસાર હર્ષોન્મત્ત થયો ને વિનયપૂર્વક હાથ જોડી સંતને સંબંધી ને કહેવા લાગ્યા...હે ભગવન્ત! અકાલે વૃક્ષ ફળે, અકાલે મેઘ ગર્જના કરે, દરિદ્રીના ઘરમાં સેનાને વરસાદ વરસે, આંધળાને આંખે આવે, તેમ આપે મારા આંગણે આવી મારી ભૂમિને પવિત્ર બનાવી છે. જેમ મરતે માણસ અમૃત પીવાથી, સજીવન થાય છે તેમ, અનંતકાલથી ભાવમરણે મરતે એ હું આપના દર્શનથી, સજીવન થયો છું. આવા પ્રકારના ઉત્કૃષ્ટ ભાવવાળી ભકિતથી પ્રેરાયેલા નયસારે, મુનિવરને નિર્દોષ અને વિપુલ આહાર પાણી ॥१६७॥ થી collww.jainelibrary.org Jain Education international For Private & Personal use only
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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