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________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥१६६॥ Jain Education " गन्तव्यं यदि नाम निश्चितमहो ! गन्तासि केयं त्वरा, द्वित्राण्येव पदानि तिष्ठतु भवान् पश्यामि यावन्मुखम् । संसारे घटिकाप्रणालविगलद्वारोपमे जीविते, को जानाति पुनस्त्वया सह मम भवेन्न वा सङ्गमः ॥ १ ॥ इति । ततो यावद् मुनिवरो लोचनपथपथिकः आसीत् तावन्नयसारः अनिमेषदृष्ट्या तं विलोकमानः तत्रैव स्थितः । मुनिना दृष्टिपथातीते ततो निवृत्य, नयसारो विज्ञातसंसारासारो धनयौवन जीवनानि अञ्जलिजलाtata अस्थिराणि चञ्चलानि प्रतिक्षणं क्षीयमाणानि अत्रधार्य, सकलमुखनिधानं सम्यक्त प्रधानं मुनिनाथवचनसंदिष्टं विशिष्टं जिनोपदिष्टं धर्मं हृदये धारयन् सहचरानपि प्रतिबोध्य स्वकं स्थानं प्रत्यगच्छत् ||८|| " गंतव्वं जइ णाम णिच्छियमहो ! गंतासि केयं तरा ?, दुत्ताण्णेव पयाणि चिट्ठउ भवं, पासामि जावं मुहं । संसारे घडियापणालविगलवारोवमे जीविए, को जाणाइ पुणो तर सह ममं होजा न वा संगमो " ॥ १॥ इति । यदि जाना निश्चित ही कर लिया है तो पधारेंगे ही, पर जल्दी क्या है ? दो-तीन कदम अर्थात् थोड़ी देर आप खड़े रहिये ताकि आपके मुखकमल का दर्शन करूँ, संसार में जीवन अरहट से बहने वाले पानी के समान चंचल है- क्षणविनश्वर है, कौन जाने ? आपका पुनः समागम हो या नहीं हो ॥१॥ विहार करते हुए मुनि जब तक नेत्रों से दिखाई देते रहे, तब तक नयसार अनिमेष दृष्टि से उन्हें देखता हुआ वहीं खड़ा रहा। मुनिराज के आखों से अदृष्ट हो जाने पर नयसार पीछे लौटा । उसने संसार के असर स्वरूप को समझ लिया था । यह भी जान लिया था कि धन, यौवन और जीवन, अंजलि में लिये जल के समान अस्थिर हैं, चंचल हैं और क्षण-क्षण में क्षीण हो रहे हैं । अतएव वह सकल सुखों के निधन प्रधान सम्यक्ता को तथा मुनिराज द्वारा उपदिष्ट, विशिष्ट, वीतरागप्ररूपित धर्म को हृदय में धारण करता हुआ, अपने साथियों को भी प्रतिबोध देता हुआ अपने स्थान की ओर चला गया || म्रु०८ ॥ NODESEE कल्प मञ्जरी टीका महावीरस्य नयसार नामकः प्रथमो भवः । ॥१६६॥ www.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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