SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को श्रीकल्प सारभूता वाणी । हे विश्ववन्ध ! भवद्वचनसहस्रांशुकरनिकरण अनादिकालावस्थितो मम हृदयगुहान्धकारो विनाशितः। यथा सहस्रकरकिरणप्रभया तुषारकणिका विलीयन्ते, तथा भवद्वचनजनितेन तत्त्वविवेकेन र ममाज्ञानमपि विलीनम् । हे भगवन् ! समेघे गगने चन्द्रचन्द्रिकावद् भवदुपदेशं विना गुणा न शोभन्ते । हे हे गुणनिधे ! भवदुपदेशमनुपश्रुत्य व्यामोहमदिराममत्ता विषयगर्ने प्रपतिता जीवा आत्मानं न ततः कदाचि न्ति । भवदुपदेशावली भवभवान्तरागताज्ञाननिद्राविमूढान् जीवान् विनिद्रान् कृत्वा क्षान्त्यादियथा चन्द्रकिरणाः कमलबनविकासने, पाषाणा मधुरगीतगाने, चित्रलिखिताश्च राजानो रण कल्प मञ्जरी ॥१६॥ नाटत राम टीका लहरें ही दे सकती हैं। विश्ववन्ध ! आपके वचनरूपी सूर्य की किरणों के समूह ने, मेरे हृदयरूपी गुफा में अनादिकाल से भरे हुए अन्धकार को दूर कर दिया है। जैसे दिवाकर की किरणों की प्रभासे ओस के नन्हें-नन्हें से कण विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार आपके वचनों से उत्पन्न हुए तत्वज्ञान से मेरा अज्ञान विलीन हो गया । हे भगवन् ! जैसे मेघों से आच्छादित आकाशमें चन्द्रचन्द्रिका शोभायमान नहीं होती, उसी प्रकार आपके उपदेश के विना गुणों की शोभा नहीं होती। हे गुणों के निधान ! आपके उपदेश को श्रवण किये विना मोह की मदिरा से मतवाले और विषयों के गड्ढे गिरे हुए जीव कदापि उससे अपना उद्धार नहीं कर सकते। आपके उपदेश भव-भव से चले आये अज्ञान की निद्रा से एकदम मूढ़ बने हुए जीवों को जागृत करके क्षमा आदि गुणों से विभूषित बनाते हैं। जैसे चन्द्रमा की किरणें कमल-वन को विकसित करने में समर्थ नहीं, पाषाण मधुर गीत गाने में समर्थ नहीं और चित्रलिखित राजा महावीरस्य नयसारनामकः प्रथमो भवः। શકતી નથી, કે અમૃતના સમુદ્રની લહેરે પણ દઈ શકતી નથી. હે વિશ્વવન્ત ! આપના વચનરૂપી સૂર્યનાં કિરણના સમૂહે મારા હદયરૂપી ગુફામાં અનાદિ કાળથી ભરેલા અંધકારને દૂર કરી દીધું છે. જેમ સૂર્યના કિરણોના તેજથી ઝાકળનાં નાનાં નાનાં બિન્દુઓ નાશ પામે છે તે જ રીતે આપના વચનેથી ઉત્પન્ન થયેલ તત્વજ્ઞાનથી મારું અજ્ઞાન નાશ પામ્યું છે. હે ભગવાન ! જેમ મેઘોથી છવાયેલાં આકાશમાં ચન્દ્રની ચન્દ્રિકા શોભતી નથી, એ જ રીતે આપના ॥१६२॥ ઉપદેશ વિના ગુણો શોભતા નથી. હે ગુણેના ભંડાર ! આપનો ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના મેહની મદિરાથી મસ્ત બનેલાં તથા વિષયો રૂપી ખાડામાં પડેલા જીવ તેમાંથી પિતાને ઉદ્ધાર કદી કરી શકતાં નથી. આપને ઉપદેશ -सवथी पासी भारती मज्ञाननी निद्राथी त भूभनेवाने तरीन क्षमा पोरे गुणाथी विभूषितww.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy