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श्रीकल्प
मुत्रे १५॥
धवलवसणं, णाणणिहाणं, अकिंचणं कंचण मुणि दंसी ॥मू०५||
छाया-ततः खलु सघन वनं निरीक्षमाणस्य बुभुक्षमाणस्य तस्य मध्याह्न आसीत, तदा प्रचण्डमार्तण्डः प्रज्वलिताऽनल इव महता तेजसा . तपति, तस्मिन् समये स वनगहनभूतले इतस्ततः परिभ्रमन् भाग्यवशात्, तपस्तपस्यन्तं, तप-प्रभाभिरनलमिव ज्वलन्तं, जलधिमिव गम्भोरं, पुष्करपलाशमिव निर्लेप, सोममिव सौम्यलेश्य, सर्वसहामिव सर्वसह, भास्करमिव तपस्तेजसा भासमान, ध्यानालेन कर्मेन्धनं दहन्तं, कच्छपमित्र गुप्तेन्द्रिय, स्फटिकरत्नमिव विशुद्धं, निरास्रवं, निर्मलं, मण्डपाकारसुशीत
कल्प: मञ्जरी टीका
मूल का अर्थ 'तएण सघणं' इत्यादि । तत्पश्चात् सघनवन का निरीक्षण करते-करते दोपहर हो गई। नयसार को भूख सता रही थी। प्रज्वलित आग की तरह प्रचण्ड मूर्य तेज से तप रहा था। ऐसे समय में वनभूमि में इधर-उधर परिभ्रमण करते हुए नयसार को सौभाग्य से एक मुनि दिखाई दिये। वह तप तप रहे थे। तपस्या की दीप्ति से अग्नि के समान देदीप्यमान थे। सागर की तरह गंभीर थे । कमल के पत्ते की भाँति निर्लेप थे। चन्द्रमा के समान सौम्यकान्तिवाले थे। पृथिवी की तरह सहनशील थे। सूर्य के समान तप के तेज से भासमान थे। ध्यानरूपी अग्नि से कर्म-ईधन को जला रहे थे। कछुवे के समान इन्द्रियों का गोपन करनेवाले थे। स्फटिकरत्न के समान विशुद्ध, आस्रव से रहित और निर्मल थे। मण्डप के आकार के शीतल वृक्ष के तले विराजमान थे। प्रशस्त ध्यान में मग्न थे। मुनिजनों में उत्तम थे।
नयसारकथा
... भूजन। मथ-'तए णं सघण' त्याहि. त्या२ पछी गायनन निरीक्षण ४२di sai पा२ २ ४. નયસારને ભૂખ સતાવી રહી. બળતી આગની પેઠે પ્રચંડ સૂર્ય તેજથી તપી રહ્યો હતે. એ સમયે વનભૂમિમાં અહીં-તહીં ફરતાં ફરતાં નયસારને સુભાગ્યે એક મુનિ દૃષ્ટિએ પડયા. તે તપ તપી રહ્યા હતાં તપસ્યાની દીપ્તિથી અગ્નિની પેઠે તે દેદીપ્યમાન હતાં. સાગરની પેઠે ગંભીર હતા. કમળની પાંદડીઓની પેઠે નિર્લેપ હતા. ચંદ્રમાં જેવી કાન્તિવાળા હતા. પૃવીની જેમ સહનશીલ હતા. સૂર્યની પેઠે તપ-તેજથી ભાસમાન હતા, ધ્યાનરૂપી
અગ્નિથી કમરૂપ ઈધણાને બાળી રહ્યા હતા. કાચબાની પેઠે ઈદ્રિયનું ગેપન કરનારા હતા. સ્ફટિકરત્નના જેવા તે Jain Education Daवशुद्ध, भासवथी रहित मननिता . मन मानाशीत वृक्षनी ते विरामभान ता. प्रशस्त
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