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श्रीकल्पसूत्रे ॥१४३॥
प्रतिहतं, निरावरणम् = आवरणरहित-सर्वतः प्रद्योतमानमित्यर्थः, कृत्स्न=पूर्ण, प्रतिपूर्ण=सवतान्याप्त, कमलवरज्ञान- " दर्शनं - केवलं=' केवल' इति नाम्ना प्रसिद्धम्, यद्वा - केवलम् = एकमात्रं - सजातीयद्वितीयरहितम्, वरं =मतिश्रुतज्ञानाद्यपेक्षया श्रेष्ठ ज्ञानं दर्शनं च वैशाखशुक्लदशम्यां समुत्पन्नम् । स्वात्यां= कार्तिकामावास्यायां स्वातीनक्षत्रे परिनिर्वृतः - निर्वाणं प्राप्तो भगवान्। 'यावत्' यावच्छब्देन भगवद्विहारादिकं भूयो भूयः=पुनः पुनः उपदर्शयति= गौतमस्वामी कथयति स्म । इति एतत् हे जम्बूः ! त्वां यथा श्रुतं तथा ब्रवीमि = कथयामि । इति ॥०१॥
आदि से निरुद्ध न होनेवाले, आवरणरहित अर्थात् संम्पूर्णरूप से भासमान, सम्पूर्ण और सर्वव्यापी केवल वर ज्ञान और दर्शन वैशाख शुक्ला दशमी को प्राप्त हुआ ५। केवल - ' केवल' नाम से प्रसिद्ध अथवा केवल का अर्थ एक मात्र, जिसके साथ दूसरा कोई ज्ञान न हो, तथा वर का अर्थ है-मति, श्रुत आदि अन्य ज्ञानों की अपेक्षा श्रेष्ठ । केवलदर्शन की व्याख्या भी इसी प्रकार समझनी चाहिए । भगवान् का निर्वाण स्वाति नक्षत्र में कार्तिकी अमावस्या को हुआ। मूल में जो 'यावत्' शब्द है, उससे भगवान् के बिहार आदि का ग्रहण करना चाहिए । यह कथन गौतम स्वामी ने पुनः पुनः किया । 'तिमि सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं— हे जम्बू ! जैसा मैंने सुना है, वैसा ही तुमसे कहता हूँ ॥०१॥
(स्टाई), फ्रुट (घट) भने मुख्य (डीवास) वगेरेथी निरुद्ध न थारु, यावरशुरहित, अर्थात् संपूर्ण ३ये लासमान, संपू ने सर्वव्यापी ठेवल वर ज्ञान भने हर्शन वैशाम सुद्ध दशमे प्राप्त थयु (५) ठेवस--"केवल” नामथी प्रसिद्ध, अथवा 'देवा' नो अर्थ है ' भात्र', नेनी साथै जीब्लु अध ज्ञान होय नहि, तथा 'वर' नो अर्थ છે મતિ-શ્રુત આદિ બીજા જ્ઞાનેાની અપેક્ષાએ શ્રેષ્ઠ. કેવલ દર્શનની વ્યાખ્યા પણ એ જ પ્રમાણે સમજવી.
ભગવાનનું નિર્વાણુ સ્વાતિ નક્ષત્રમાં કાર્તિકી અમાસે થયું. મૂળમાં જે થાવત્ શબ્દ છે, તેથી ભગવાનનાં बिहार आदि अड १२वां मे उथन गौतम स्वाभीओ पुनः पुनः प्रयु 'प्ति बेमि' सुधर्भास्वामी કહે છે—હે જ ખૂ! જેવું મેં સાંળળ્યું છે તેવુ' જ તને કહું છું. (સૂ॰૧)
स्वामीने
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कल्प
मञ्जरी टीका
उपोद्घातः
॥१४३॥
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