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________________ श्रीकल्प दिकं वा प्रक्षालयितुम् । अथ केनार्थे भदन्त ! एवमुच्यते ?, येन तथाप्रकारेषु पात्रेषु अशनादिकं परिभुञ्जानो वस्त्रादिकं वा प्रक्षालयन् निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा आचारात् परिभ्रश्यति ॥ मू०३५॥ टीका-'नो कप्पइ' इत्यादि । निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा गृहपतेः गृहस्थस्य संबन्धिषु अलाब्वादिसुवर्णपात्रान्तेष्वन्यतमेषु पात्रेषु, तथाप्रकारेषु मूलोक्तपात्रभिन्नेषु वा कुण्डादिषु पात्रेषु अशनादिकं परिभोक्तुं वस्त्रादिकं वा प्रक्षालयितुं नो कल्पते। अत्र शिष्यः पृच्छति-से केणढणं' इत्यादि । अथेति प्रश्ने, हे भदन्त ! केनार्थेन केन हेतुना गृहस्थसंबन्धिषु अलाबादिपात्रेषु अशनादिपरिभोगनिषेधो वस्त्रादिप्रक्षालननिषेधश्च क्रियते ? इति । गुरुराह-हे शिष्य ! येन हेतुना तथाप्रकारेषु पाषु अशनादिकं परिभुञ्जानो वस्खा कल्पमञ्जरी टीका ॥१०९॥ प्रश्न-हे भदन्त ! किस कारण से ऐसा कहा है ! उत्तर-इस प्रकार के पात्रों में अशन आदि का परिभोग करने वाला और वस्त्र आदि धोनेवाला निग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थी आचार से च्युत हो जाते हैं ॥मू०३५॥ साधुओं और साध्वियों को गृहस्थ के तूबे से लेकर सुवर्ण तक के किन्हीं भी पात्रों में तथा मूत्र में उल्लिखित पात्रों के अतिरिक्त दूसरे भी किसी प्रकार के कुंडे आदि में अशन आदि का भोगना तथा वस्त्र आदि का धोना नहीं कल्पता है । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है-'भगवन् ! किस कारण से गृहस्थ के तंबे आदि के पात्रों में अशन आदि के परिभोग का तथा वस्त्र आदि के धोने का निषेध किया जाता है ? ' गुरु उत्तर देते हैं-'हे शिष्य ! कारण यह है कि इस प्रकार के पात्रों में अशन आदि प्रश्न- मन्त? या २४थी मे थु छ ? ઉત્તર-એ પ્રકારનાં પાત્રોમાં અશનાદિનો પરિગ કરનાર અને વઆદિ ધનાર નિગ્રન્થ-નિગ્રન્થો આચારથી अष्ट २४ सय छ. (२०३५) ટીકાને અર્થ-સાધુ-સાધ્વીઓને ગૃહસ્થનાં તુંબડાથી માંડી સુવર્ણ સુધીનાં કઈપણ પાત્રોમાં તથા સૂત્રમાં લખેલાં પાત્રો ઉપરાંત બીજાં પણ કંઈ પ્રકારનાં કુંડાં આદિમાં અશનાદિને ઉપભોગ કરે તથા વસ્ત્રાદિ જેવાં કહપતાં નથી. અહીં શિષ્ય પ્રશ્ન કરે છે–“ભગવન ! ક્યા કારણથી ગૃહસ્થનાં તુંબડા આદિનાં પાત્રોમાં અશનાદિના પરિભેગને તથા વસ્ત્રાદિ દેવાને નિષેધ કરવામાં આવ્યું છે?” ગુરુ ઉત્તર આપે છે-“હે શિષ્ય ! ॥१०९॥ Jain Education Inter nal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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