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________________ श्रीकल्प कल्पमञ्जरी टीका सूत्रे मा गृहीत तदग्रहणकालिकमहरात तृतीय प्रहरं यावदेव कल्पते, न ततः परतः। ततश्च-द्वितीयमहरे गृहीतं चतुर्थे कल्पते एवेति ॥सू०३३॥ अकल्पनीयप्रस्तावादन्यदप्यकल्पनीयमाह मूलम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंधीणं वा सचित्तं बिल वा लोणं, सचित्तं उब्भियं वा लोणं ॥१०७|| अण्णयरं वा तहप्पगारं सचित्तं वत्थु पडिगाहित्तए वा परि जित्तए वा। आहच्च जेण केणवि पगारेण सचित्तं वत्थु पडिगाहियं हवेज्जा, तं परिविज्जा, णो अँजिज्जा ॥ मू०३४॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निन्थीनां वा सचित्तं विडं वा लवणं, सचित्तम् उद्भिदं वा ga लवणम्, अन्यतरं वा तथाप्रकारं सचित्तं वस्तु प्रतिग्रहीतुं वा परिभोक्तुं वा । कदाचित् येन केनापि प्रकारेण सचित्तं वस्तु प्रतिगृहीतं भवेत्, तत् परिष्ठापयेत्, नो भुञ्जीत ॥ मू०३४ ।। S एषणीय अशन आदि ग्रहण किया है, वह ग्रहण करने के समय से तीसरे पहर तक उपयोग में लाना कल्पता है, उससे आगे नहीं । दूसरे प्रहर में ग्रहण किया हुआ चौथे महर में तो कल्पता ही है ॥ मू०३३॥ अकल्पनीय का प्रसंग होने पर अन्य अकल्पनीय भी कहते हैं-'नो कप्पड़' इत्यादि । ___ मूल का अर्थ-साधुओं और साध्वियों को सचित्त काला नमक, सचित्त समुद्री नमक तथा इसी प्रकार की अन्य कोई भी सचित्त वस्तु ग्रहण करना अथवा भोगना नहीं कल्पता। कदाचित् भूल-चक आदि से सचित्त वस्तु ले ली हो तो उसे परठ देना चाहिए, उसका उपयोग करना नहीं कल्पता ।। मू०३४॥ આદિ લીધાં હોય તે લેવાના સમયથી ત્રીજા પર સુધી ઉપયોગમાં લેવાં કપે છે, તેથી આગળ નહિ. બીજા पडारमा सीधे यथा पडारभो त ४८पे छ. (२०७३) म वानो प्रसंग डाय मी अ६५ता पहा ५ ४ छः 'नो कप्पई' त्याहि. . भूगनी अथ-साधु-साध्वीमाने सयेत आणुनम, सयत हरियाई नम (भाई), तथा मे प्रारनी भी કેઈપણ સચિત્ત વસ્તુ ગ્રહણ કરવી અથવા ભોગવવી કપતી નથી. કદાચ ભૂલ્ય-ચૂકયે સચિત્ત વસ્તુ લેવાઈ હોય તે તેને પરઠવી દેવી, તેને ઉપભેગ કરે ક૫તે નથી. (સૂ૦૩૪) તેમાં Jain Education International For Private & Personal Use Only iww.jainelibrary.org.
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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