SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीकल्पसूत्रे ॥१०२॥ Jain Education International पूर्व भिक्षैरलब्धभिक्षैर्वा तैः समागन्तव्यमिति भावः ॥०३०॥ भक्तपानप्रस्तावात् कृतचतुर्थादिभक्तेन यादृशं पानं ग्रायं तद् वक्तुमाह- मूलम् -- कप्पर निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा चउत्थभत्तियस्स तिष्णि पाणगाई पडिगाहित्तए, तं जहा - उस्सेइमे संसेइमे चाउलधोवणे । कप्पर निग्गंथस्स वा निम्गंधीए वा छट्टभत्तियस्स तिष्णि पाणगाई पडिगाहित्तए, तं जहा - तिलोदए तुसोदए जवोदए । कप्पर निम्गंथस्स वा निग्गंथीए वा अट्टमभत्तियस्स तिष्णि पाणगाई पडिगाहित्तए, तं जहा - आयामए सोवीरए सुद्धवियडे | ०३१॥ छाया -- कल्पते निर्ग्रन्थस्य वा निर्ग्रन्ध्या वा चतुर्थभक्तिकस्य त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं तद्यथाउत्स्वेदिमं संसेकिमं तन्दुलधावनम् । कल्पते निर्ग्रन्थस्य वा निर्ग्रन्ध्या वा षष्ठभक्तिकस्य त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुम्, तद्यथा - तिलोदकं तुपोदकं यवोदकम् । कल्पते निर्ग्रन्थस्य वा निर्ग्रन्ध्या वा अष्टमभक्तिकस्य त्रीणि मिल गई हो तो भी और न मिली हो तो भी उन्हें अपने स्थान में आ जाना चाहिए ॥ ०३० ॥ आहार -पानी का प्रकरण होने से उपनाम आदि करने वाले साधु को जिस प्रकार का पानी लेना चाहिए, सो कहते हैं-' कप्पड़' इत्यादि । मूल का अर्थ -- उपवास में साधु-साध्वी को तीन प्रकार का पानी ग्रहण करना कल्पता है। वह इस प्रकार - उत्स्वेदिम, संसेकिम और तन्दुलधावन । षष्ठभक्त ( वेला) करनेवाले साधु-साध्वी को तीन प्रकार का पानी ग्रहण करना कल्पता है। वह इस प्रकार - तिलोदक, तुषादक और यवादक । अष्टमभक्त (तेला) करने वाले साधु-साध्वी को तीन प्रकार का पानी ग्रहण करना कल्पता है । वह इस प्रकार મળી હોય તે પણ તેમણે પેાતાના સ્થાન પર આવી જવુ જોઈએ (સ્૦૩૦) આહાર-પાણીનું પ્રકરણ હાવાથી ઉપવાસ આદિ કરનાર સાધુએ જે પ્રકારનું પાણી લેવુ' જોઇએ, તે હવે उहे छे- 'कप्पर' त्याहि. મૂળના અથ—ઉપવાસમાં સાધુ-સાધ્વીને ત્રણ પ્રકારનુ` પાણી લેવું ક૨ે છે. તે પ્રકાર આ પ્રમાણે-ઉત્સ્વદિમ, સંસેમિ અને તંદુલધાવના પદ્મભકત (એલ) કરનાર સાધુ-સાધ્વીને ત્રણ પ્રકારનુ' પાણી લેવુ' કલ્પે છે, તે આ પ્રમાણે તિલે દક, તુષેદક અને યવાદક. અષ્ટમભક્ત (તેલું) કરનાર સાધુ-સાધ્વીને ત્રણ પ્રકારનું પાણી કલ્પે છે, તે For Private & Personal Use Only कल्प मञ्जरी टीका ॥१०२॥ www.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy