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श्रीकल्प
मूत्र
कल्प
॥१२॥
मञ्जरी
टीका
पर्युषणायां च साधुभिः साध्वीभिश्च केशोल्लुश्चनं नियमतः कर्त्तव्यम् , तल्लुश्चन पर्युषणापतिक्रमणतस्तावन्त्येव दिनानि पूर्व कर्तव्यम्, येन गोरोमप्रमाणस्ततो दीर्घा वा केशः पर्युषणाप्रतिक्रमणकाले न भवेदिति शास्त्रमर्यादा । तामेष दर्शयितुमाह
मूलम्-नो कप्पइ निग्गंधाणं वा निग्गंथीणं वा पज्जोसवणाए गोलोममायाइंपि वालाई उवाइणावित्तए ।मू०२२॥ ___छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पर्युषणायां गोलोममात्रानपि वालान् अतिक्रमितुम् ॥ मू०२२॥
टोका-नो कप्पइ' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा । नवरम्-अतिक्रमितुम्-उल्लययितुमिति॥म्०२२॥
साधुओं और साध्वियों को पर्युषण में केशलुचन अवश्य करना चाहिये । परन्तु वह केशलुश्चन पयुषणपतिक्रमण के उतने ही दिन पहले करना चाहिये जिससे पयषणप्रतिक्रमण के समय गोरोमप्रमाण, अथवा उससे अधिक बड़े केश न हों; यह शास्त्रमर्यादा है, इसीको मूत्रकार दिखलाते हैं'नो कप्पइ' इत्यादि।
मूल का अर्थ–साधुओं और साध्वियों को पर्युषणामें (पर्युषणा के अवसर पर) गौ के रोम बराबर भी वालों का उल्लंघन करना नहीं कल्पता ॥ मू०२२॥
टीका का अर्थ-व्याख्या स्पष्ट ही है । 'उवाइणावित्तए' का अर्थ 'अतिक्रमण करना है। अर्थ पर्युषणपतिक्रमण के समय गोरोम प्रमाण भी केश नहीं रहना चाहिए ॥ मू०२२॥
સાધુઓ અને સાધ્વીઓએ પર્યુષણમાં અવશ્ય કેશલુંચન કરવું જોઈએ. એ કેશલુંચન પર્યુષણના પ્રતિક્રમણ પૂર્વે એટલા દિવસ પહેલાં કરવું કે જેથી પ્રતિકમણ સમયે ગાયના રામ પ્રમાણુ અથવા તેથી વધારે ainश या न खाय: से शामाहा छ. शाला सतावे छ: 'नो कप्पइ' त्याहि
મૂળને અર્થ–સાધુ-સાધ્વીઓને પર્યુષણાના અવસર પર ગાયના રામ બરાબર પણ વાળનું ઉલલ ધન ४६५ नथी. (सू०२२)
न मथ-व्याच्या २५८८ छ. 'उवाइणावितएन। म अतिम ४२यु' वा थाय छे. मात् પર્યુષણના પ્રતિક્રમણ સમયે ગાયના રામ પ્રમાણ પણ કેશ રહેવા જોઈએ નહિ. (સૂ૦૨૨).
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Tી
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