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चरित्र
समान हितैषी हैं। आज आपके चरणकमलकी रजसे मेरा सब पाप विला गया ऐसा मैं समझती हूँ। भगवान में इस संकट में आपके गुणोंका ही स्मरण कर रही थी और मुझे आपके दर्शनोंकी बड़ी लालसा (पिपासा) लग रही थी। जैसे कि गर्मीके दिनोंमें हरिण प्यासे होके मृगजलकी ओर झांकते हैं । मेरे पुण्योदयसे आप इस नगरीमें पधारे बड़ी कृपा की।३०-३२नारदजीने पुनः समझाया, पुत्री ! | चिंता मतकर। प्रयत्न तो किया ही जायगा. पश्चात् होनहार बलवान है ! मैं पृथ्वीपर सब जगह तलाश
करके तेरे पुत्रको ले श्राऊंगा। मैं तो भला बिना कारण ही सब जगह भ्रमण करता रहता हूँ, जिसमें मुझे रंचमात्र खेद नहीं होता है । तब यदि तेरे कार्यके लिये में पर्यटन करू, तो मुझे कैसे दुःख हो सकता है ? ॥३३ ३५॥ अढ़ाई द्वीपमें ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ मेरी गति न हो। में समस्त भूमि पर तेरे पुत्रकी तलाश करूंगा।३६। नारदजीके वचन सुनकर रुक्मिणी बोली, महाराज उसका पता लगाना कठिन है। में बड़ी मन्दभागिनी हूँ जो मुझे पुत्रकी वार्ता तक सुनने को नहीं मिल सकती, तो भी प्रभु ! आपके वचन मुझे मङ्गलकारी होवें । नारदजी रुक्मिणीको मलिन और दीन मुख देखकर बोले, पुत्री ! मेरा कहा सत्य मान, किमी पूर्वभवके दुष्ट बैरीने ही तेरा पुत्र हरा है । यदि मैं तेरे पुत्रकी खबर न ला दूं तो तू मेरे वाक्य झूठे समझना। अतएव तू शोक चिंताको दूर करके सावधान हो, मनमें धीरज धारण कर ।३७-३६। कंसके छोटे भाई श्रीअतिमुक्तक मुनिराज जो केवलज्ञानसे विभूषित थे, तथा तीनलोकके पदार्थों को प्रत्यक्ष देखने जाननेवाले थे, वे तो अष्टकर्मरूपी कट्टर शत्रयोंको नाशकरके मोक्षको प्राप्त हो गये और जो नेमिनाथ तीर्थंकर मतिश्रु तअवधिज्ञानके धारक सत्य २ कहनेवाले हैं, वे कुछ बतावेंगे नहीं। इस कारण मुझे जगत प्रसिद्ध पूर्व विदेहको जाना होगा, जहांपर एक रमणीक पुण्डरीकिनी नामकी नगरी है, जिसमें श्रीसीमंधरस्वामी समवसरण में विराजमान हैं। वहां जाकर भगवानको मैं प्रसन्नतापूर्वक नमन करूंगा, उनकी भक्तिभावसे तीन प्रदक्षिणा दूंगा और अष्टांग प्रणाम
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