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चरित्र
।१०१-१०२ हे कृष्ण ! पुत्रके वियोगसे तुम्हें अप्रमाण दुःख हो रहा है और तुम्हें दुःखी देखकर में अपने जीवनको निरर्थक समझ रहा हूँ। क्योंकि सिवाय कृतघ्नी पुरुषके ऐसा कौन है, जिसका चित्त अपने भाई बन्धुओंको दुःखी देखकर संक्लेशित न होता हो ? जिस प्रकार मैं तुम्हें दुःखी देखकर दुःखी हो रहा हूँ, इसी प्रकार जो २ तुम्हारे सच्चे स्वजन मित्रादि हैं, वे भी दुःखित हो रहे हैं, यह तुम सच समझो । परन्तु अब यह जो पुत्रहरणका दुःख हो रहा है, उसे तुम बिलकुल दूर कर दो। ।१०३-१०५। जगतमें ऐसा कौन है, जिसे पुत्रके वियोगसे दुःख न होता हो ? यह दुःख इतना दारुण होता है कि, किसी देवसे वा मंत्रतंत्रके आराधनसे नहीं मिट सकता है ।६। ऐसा जानकर इस संसारके कारण भूत शोकको छोड़ दो। आप स्वयं सब शास्त्रों के ज्ञाता हो । जगतमें ऐसा कौन है, जो आपको उपदेश देनेकी सामर्थ्य रखता हो, कारण सूर्यके प्रकाशको दीपक कौन दिखावै ? ७६। ऐसे अनेक प्रकारके वाक्योंसे नारदजीने, श्रीकृष्णको समझाया, तब उन्होंने प्रत्युत्तर दिया, भगवन् ! आपका कहना सत्य है । कृपा कर आप रुक्मिणीके पास महलमें पधारो और उसे समझाकर धीरज बँधायो । कारण उसके दुःखको देखकर मेरा हृदय भर आता है ।-१०। इस प्रकार कृष्णजीके दुःखको शमन करके उनके दुःखसे दुःखी नारद मुनि रुक्मिणीके महलमें गये ।११॥
नारद मुनिको आये देखकर रुक्मिणी खड़ी होगई। उसने भक्तिभावसे प्रणाम किया और सन्मुख आसन धर दिया, जिसपर मुनि विराज गये । ठीक ही है, दुःखके जालमें फँसे रहने पर भी महत्पुरुष विनय करना नहीं छोड़ते हैं। २-१३। रुक्मिणी नारदजीके चरणोंमें पड़कर रुदन करने लगी। क्योंकि दुःखी अवस्थामें अपने इष्ट मित्रादिकोंके देखनेसे दुःखके कपाट खुल जाते हैं। भूला हुआ दुःख उमड़ उठता है ।१३-१४। मुनि बोले, पुत्री ! कोई पूर्वभवका वैरी तेरे प्राणप्रिया पुत्रको हरके ले गया है, इस कारण मैं भी चिंताके सागरमें पड़ा हूं।१५। रुक्मिणी बोली, महामुने ! मैं क्या करू
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