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________________ मूर्छा जाती रही तो भी अतिशय दुःखके कारणसे वे गुणदोषके विचारकी बुद्धिसे शून्य हो गये।।। प्रद्यन्न | थोड़ी देर वहीं ठहरके उक्त द्वारिकाकी ओर चले और धीरे २ वहाँ पहुँचे, जहां कृष्णजी बैठे हुए थे । चरिः श्रीकृष्ण ने नारदजी को आते देख अपने ग्रासनसे खड़े होकर नमस्कार करके अासन दिया व शोक करने लगे। और नारदजी दुःखी होकर मौनसे बैठ गये ।८७.६३। थोड़ी देरके बाद दुःखको दाबकर, संक्लेश सहित, गद्गदवाणीसे नारदजी बोले-९४॥ (प्राचार्य कहते हैं) देखो जिनेन्द्रदेवने जिस स्यादवादवाणीका प्ररूपण किया है, नारदजी उसके ज्ञाता थे, उसके बलसे वे अपने दुःखके स्वरूपको पहिचानते थे ( कि यह मोहजाल है) वे सप्त तत्त्वोंके पूरे ज्ञाता थे और दूसरोंको सम्बोधन में पूरे प्रवीण पण्डित थे, तो भी कृष्णके दुःखको देख कर दुःखी हो रहे थे-मोहकी लीला अपरम्पार है ।९५-९६॥ (नारदजी कहते हैं) कृष्णराज मेरी बात ध्यानसे सुनो। जो कुछ सर्वज्ञ जिनेश्वरने कहा है, वही मैं कहता हूँ:-"जितने संसारी जीव हैं, उनका एक न एक दिन विनाश अवश्य होता है, ऐसा जानकर शास्त्ररहस्यके ज्ञाताओंको शोक नहीं करना चाहिये। चिन्ता करनेसे गई चीज मिलती थोड़े ही है। यदि कोई मर जाय और उसकी चिन्ता की जाय तो वह जीवित पीछा नहीं श्रा सकता है । जिन श्रेष्ठ पुरुषोंने संसारको असार जानकर छोड़ा है और वनमें जाकर तपश्चरण किया है वे ही धन्य हैं। उन सत्पुरुषोंको माता पिताके वियोगका, वैरीद्वारा पुत्रके हरण होनेका, वा किसीके मरण वा जन्मका, न सुख है न दुःख है ।९७-१००। यद्यपि मैंने घरद्वार छोड़ रक्खा है, सांसारिक सुखोंको जलांजुली दे रक्खी है, तथा मैं वनमें वास करता हूँ, देशव्रत संयमका धारक हूँ और सम्यक्त्वसे विभूषित हूं तथापि केवल तुम्हारे स्नेहके कारणसे तुम्हें दुःखी और चिंतातुर देखकर मैं भी दुःखी और सचिन्त हो रहा हूं। क्योंकि जीवधारियोंके बन्धुवर्गके निमित्तसे ही स्नेह होता है। Emperi Jain Educa interational For Private & Personal Use Only www. brary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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