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प्रद्यम्न
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गोदमें लाकर बिठला देता हूँ ।
चरित्र
इसप्रकार समझाके श्रीकृष्णने रुक्मिणीका जिसके नेत्र लाल हो रहे थे रुदन करना बंद किया । और दुर्भेद्य कवचोंको धारण करनेवाले तेज हथियारोंवाले नवजवान कुलीन और सच्चे बलवान घुड़सवारोंको उसी समय सेनाके साथ चारों ओर पुत्रकी खोज करनेके लिये भेज दिया । सो उन्होंने सारी पृथ्वी ढूंढ़ डाली । परन्तु जब कहीं भी उस बालकका पता नहीं लगा, तब खेदखिन्न होकर वे द्वारिका नगरीको लौटा और कृष्णजीके सन्मुख मौन धारण कर लज्जासे वा शोकसे मस्तक नीचा करके खड़े हो गये । सुभटोंका मुख मलीन देखकर और उससे यह समझकर कि, इनको मेरे पुत्रका पता नहीं लगा है कृष्णजीने शोकको ज्यों त्यों दबाकर मुख नीचा कर लिया। इसी प्रकार अपने पति के वचनों को मानकर रुक्मिणीने भी ज्यों त्यों अपने शोक के उद्बो गको रोका। द्वारिकानगरीके निवासियों की भी यही दशा हुई । सारी नगरी उत्साह और उत्सवहीन हो गई। सच है राजाके स्वाधीन ही राज्यभूमिकी शोभा शोभा हुआ करती है ।७६ - ८४ | यहां तक शोभा नष्ट हो गई कि कहीं भी कोई उत्सव, बाजोंका शब्द, गीत नृत्यादिक सुनने वा देखने में नहीं आते थे । उम पुत्रके विरहमें उस पुरीकी सारी शोभा नष्ट हो गई | ८५
उमी समय नारद मुनि आकाशमार्गसे आये और द्वारिकाके उपवन में ठहर गये । ८६ । जब उन्होंने द्वारिकाकी दशा देखी तो मालूम हुआ कि, न यहाँ कोई शोभा ही दीखती है और न उत्सव ही कहीं होता है । तब उन्होंने चकित होकर किसी आदमी से पूछा, जिससे मालूम हुआ कि, रुक्मिणी के पुत्रका हरण हो जानेसे श्रीकृष्णके शोकसे नगरीकी यह अवस्था हुई है । इन कठोर दुःखदाई वज्रप्रहारके समान वाक्योंको सुनते ही नारद मुनिका हृदय विदीर्ण हो गया, जिससे वे पृथ्वी पर गिर के बेहोश हो गये । थोड़ी देर तक मुनिनायक जमीन पर ही अचेत पड़े रहे । पश्चात् वनकी पवनसे उनकी
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