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प्रद्युम्न
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बेटा तू हमारा कुलकमलदिवाकर और गुणसमुद्र था। अब तू कहां लोप हो गया तू यदुवंशियोंके कुलरूपी समुद्रको बढ़ाने के लिये चन्द्रमाके समान था तेरा शरीर बहुत सुन्दर और तेरी आवाज बड़ी प्यारी वा मीठी थी । अब तू कहां छिप गया, प्रिय वत्स तू बड़ा भाग्यशाली था स्वजन बधुवर्ग के चित्तरूप कमलों पर केलि करने वाला परम शोभनीक हंस था अब तू क्यों अदृश्य हो गया । ३२-३८ । इस प्रकार भांतिभांतिके मर्मभेदी वचनोंको उच्चारण कर कृष्णजीने बड़ी देर तक विलाप किया। उनके होठ टपकते हुए से धुल रहे थे । कुटुम्बी जनोंने भी बहुत विलाप किया | ३६ | पश्चात् श्रीकृष्ण बन्धुवर्ग के साथ दुःखसे अपने मस्तकको धुनते हुए रुक्मिणी के महलको चले। रास्ते में उन्होंने अपने मन ही मनमें सृष्टिकर्ताको उलाहना दिया कि - हे विधाता तू क्यों तो ऐसे शुभलक्षणयुक्त चित्तको वशीभूत करनेवाले सुन्दर नररत्नको बनाता है और बनाकर पीछे उसे क्यों हर लेता है । धिक्कार है तेरे पाण्डित्यको (पण्डिताईको ) जो मनोहर रूपकी रचना करके उसे फिर हरण कर लेता है ।४०-४२ । इस प्रकार विचार करते और धीरे २ पांव बढ़ाते हुए श्रीकृष्णजी रुक्मिणीके महलमें पहुँचे ।
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अपने स्वामीको आते देख रुक्मिणी एकदम खड़ी हो गई और कुलीनताका स्वाभाविक लक्षणस्वरूप विनय करके मूर्च्छा खाकर गिर पड़ी । सो देखा ही जाता है कि, अपने हितैषी स्वजनों को देखते ही मनुष्यों का दुःख उमड़ आता है । ४३-४४ | यह देख श्रीकृष्णजीने शीतोपचारोंद्वारा उसकी मूर्द्धा दूर करने का प्रयत्न किया । उसने सचेत होकर वह पुनः विलाप करने लगी । ४५ । श्रीकृष्ण भी दुःखित हो उसीके पास बैठ गये और बारंबार पुत्रकी याद करके उस दुःखको और भी बढ़ाने लगे । ४६ । रुदन करती हुई रुक्मिणीने अपने प्राणनाथसे कहा; हे स्वामी । आपके समान सामर्थ्यवान के विद्यमान होते हुए भी मेरा पुत्र कहाँ चला गया ? |४७| नाथ ! मेरे अभाग्यवश मेरा बालक चला गया। मैं बड़ी मन्दभागिनी हूँ । “क्या करू ? अब मैं पुत्रवती होगई" ऐसा कहकर भूमिपर गिर पड़ी, विह्वल
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