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अपना परम हितका करने वाला धर्म धारण करो।२००। धर्म ही समस्त प्रकारके सुखों का करने वाला है, धर्म ही जीव का भला करनेवाला है, धर्म ही गुरुत्रों का गुरु है, धर्मसे ही स्वर्ग मोक्षादि के
||चरित्र अनेक प्रकारके मनोवांछित सुख प्राप्त होते हैं और धर्मसे ही सदाकाल चन्द्रमाकी चांदनी के समान निर्मल कीर्ति फैलती है अर्थात् यश दिन दूना रात चौगुना बढ़ता है। इसलिये हे बुद्धिवान भव्य प्राणियों ! जिस जिनधर्मकी उपासना मुनीन्द्रजन करते हैं उसे तुम धारण करो।२०१॥ इति श्री सोमकीर्तिआचाचविरचितप्रद्युम्नचरित्र सस्कृतग्रन्थके नवीन हिन्दीभाषानुवादमें प्रद्युम्नकुमार आदिके हरण आदिका
वर्णनवाला पांचवा सर्ग समाप्त हुआ।
षष्टः सर्गः उधर कालसंवर विद्याधरके स्वर्गके समान सुन्दर महलोंमें प्रद्युम्नकुमार अपने रक्षक माता पिताओंको सुखी कर रहा था, उनकी मनोवांछात्रोंको बढ़ा रहा था और स्वयं आनंदमें मग्न हो रहा था, इधर द्वारीकापुरिमें रानी रुक्मिणी की बालकका हरण हो जानेसे बड़ी बुरी दशा थी जिसे सुनकर लोगोंके हृदय भर अावेंगे। यहाँ संक्षेपमें उसका वर्णन करते हैं ।१-३॥
जब दुष्ट दैत्य बालकको हर ले गया, तब रुक्मिणी निद्रासे सचेत होकर अपने सर्वगुण सम्पन्न बालकको चारों ओर देखने लगी।४। जब अपनी सेजपर बालकको नहीं पाया, तब बह चकित होकर नौकर चाकरोंसे पूछने लगी, नौकरों ! तुम मुझे बहुत जल्दी बतानो, मेरा गुणवान पुत्र कहां है ? फिर चिन्ताग्रसित होकर विचारने लगी कि, यह देवकृत माया है, अथवा कोई इन्द्रजालका खेल है मुझे यह स्वप्न आरहा है, किंवा मेरी आँखोंमें भी अन्धेरा छा रहा है (जिससे बालक दिखाई नहीं देता) मेरा हृदय ही शून्य हो रहा है अथवा वात प्रकृतिमें आकर ही मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है कोई पूर्व जन्मका बैरी दैत्य मेरे बालकको हरके लेगया है अथवा किसी दासीकी गोदमें मेरा बालक खेल
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