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________________ प्रद्युम्न । चरित्र - अटवीमें नेवले, सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि निर्दयी जीव विचर रहे थे। विशेष कहांतक कहा जाय, इतने हीमें समझ लेना चाहिये कि वह वन इतना डरावना था, कि उसे देखकर यमराजको भी भय उत्पन्न || होता था ।१२२-१२४। फिर बावन हाथ लम्बी और ५० हाथ मोटी दलदार कठोर मजबूत चट्टानके नीचे उस दयाहीन दैत्यने बेचारे बालकको दवा दिया। पीछे उसने चट्टानको अपने दोनों पावोंसे खूब दवाई (इस अभिप्रायसे कि वह बिलकुल पिचल जाय)।१२५-१२६। तदनन्तर दैत्य बोला, रे दुरात्मन् ! तूने पहले खोटे कर्म उपार्जन किये थे, उसीका यह फल मिला है। इसमें मेरा कुछ अपराध नहीं है। यह तेरी ही करतूतका वा भूलका नतीजा है ऐसा कहकर और अपने मनोरथकी सिद्धि समझके वह दैत्य वहांसे चला गया ।१२७-१२८। (प्राचार्य कहते हैं ) इतना घोर उपसर्ग करनेपर भी वह बालक नहीं मरा । सो ठीक ही है “पुण्यात्मा जीवोंको आपत्ति कुछ भी त्रास नहीं पहुंचा सकती" भावार्थ-पुण्यके माहात्म्यसे दुःख भी सुखरूपमें परिणत हो जाता है ।१२६। इस जीवने पूर्व भवमें ध्यान, जप, तप किया था। उसीके प्रतापसे इस भवमें वह चरमशरीरी अर्थात् तद्भवमोक्षगामी हुआ है । देखो ? बावन हाथकी जबरदस्त शिलासे उस बालकका न मरण हुअा और न उसे रंचमात्र दुःख हुा । वात सचमुचमें यों ही है । क्योंकि चाहे वन में हो या शहर में हो, पूर्वोपार्जित पुण्य ही देहधारियों की रक्षा करने वाला है ।१३०-१३१। जिस भव्य जीवके पल्ले पूर्वभवका संचय किया हुआ पुण्य बँधा हुआ है, उसका कैसा भी शत्रु क्यों न हो, बाल बांका नहीं कर सकता।१३२॥ करुणावान सूर्य उदयाचल पर्वतपर पधारे। इस विचारसे कि देखें तो सही मेरी अनुपस्थिति में दुष्ट दैत्यने पूर्वभवके बैरको चितारकर बालकके साथ कैसा बर्ताव किया है ? पूर्वपुण्यके प्रभावसे शिलाके तले दबे हुए बालककी आगे क्या दशा हुई, सो यहां वर्णन करते हैं ।।१३३-१३५। जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें एक विजया नामक सुप्रसिद्ध पर्वत है। उसकी दक्षिण दिशामें Jain Educh international For Privale & Personal Use Only www.amelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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