SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रद्यम्न त् चरित्र उठा लिया। १०८-१११। दैत्यने महलके कपाट खोल लिये और प्रसन्नतासे वह बालकको बाहर निकाल लाया । पश्चात् वह दुबुद्धिधारक उसे अाकाशमें ले गया और क्रोधसे नेत्र लाल करके उसकी ओर देख घुड़कके बोला ।११२-११३। रे रे दुष्ट महापापी ! तूने पूर्व भवमें घोर पाप कर्म किये हैं। उसकी तुझे याद है या नहीं? जब तू राजा मधु था और मेरी प्राणप्यारी रानी ( चन्द्रप्रभा ) को हरके ले गया था, उस समय तू सामर्थ्यवान था और मैं सामर्थ्यहीन था। इससे तूने मनमाना अन्याय कर डाला था। अब बोल मैं तुझे कौन २ से भयङ्कर दुःखोंका मजा चखाऊ? ११४-११५। रेसे चीरकर तिलके समान तेरे खंडखंड कर डालू? अथवा जिस समुद्रमें बड़ी २ ऊंची लहरें उठती हैं और जो मगर मच्छादि क्र र प्राणियों से भरा है, उसमें तुझे फेंक दू, तेरे हजारों टुकड़े करके दिशाओंको बलिदान दे दूं अथवा किसी पर्वतकी गुफामें ले जाकर चट्टानके नीचे दाबकर पीस डालू ? रे दुर्मति ! मैं तुझे कोन २ से दुःखोंका भाजन बनाऊ, पूर्वभवमें धनयौवनके घमंडमें चकचूर होकर तूने घोर अनर्थ किया है, उमकी तू याद कर। रे दुराचारी ! तू ही कह दे कि में तेरा क्या करू और पूर्वकर्मके उदयसे किसप्रकार तुझे तीव्र दुःख दूं।११६-११९। इसप्रकार दैत्यने बेचारे बालकको बड़ी निर्दयताकी दृष्टि से देखा। उसे तरह २ के कठोर शब्दोंके प्रहारसे धमकाया, चमकाया। फिर बड़ी देर तक वह इसी उलझन में पड़ा रहा कि, ये दुःख दूं अथवा ये दुःख दू, निदान शिलाके नीचे दाबनेका ही दृढ़ संकल्प करके दैत्य उस बालकको तक्षक नामक पर्वतपर ले गया ।१२०-१२। उस तक्षक पर्वतपर एक खदिरा नामकी अटवी थी, जो नाना प्रकारके वृक्षोंसे संकीर्ण हो रही थी जहाँ तहाँ कांटे फैले हुए थे, पैने २ कंकर पत्थर बिछ रहे थे, गोखरू कांटोंकी भी जहाँ कमी न थी जहाँ इगुदी, खदिर, बिल्व, धव, पलाश आदि जातिके वृक्ष तथा विषवृक्ष लगे हुये थे जिस विकट - Jain Educatinternational For Private & Personal Use Only www.jaiterary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy