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प्रद्युम्न
चरित्र
लिये कौन २ से उपाय नहीं रचता ॥५२॥ जल स्नान करके और बहुतसे कमल लेकर सत्यभामा जल्दीसे बावड़ीके बाहर निकल आई। इस शंकासे कि कहीं रुक्मिणी न आ जाय ॥५३॥ और उसी प्रकार (पूजकाके भेषमें) अशोक वृक्षके नीचे जहाँ कि कृष्णकी वल्लभा (देवीके रूपमें) बैठी हुई थी, आकर खड़ी होगई।५४। उसने देवीकी भक्तिपूर्वक अनेक तरहके पुष्पोंसे पूजा की और जल्दीसे पाँव पड़ी(चरणों में मस्तक लगाया) और ऐसे मनोहर वचन कहे कि ।५५। हे वनदेवते ! तू मेरे पुण्यके प्रभावसे प्रगट हुई है, तो मुझे उत्तम वरदान दे। कारण “देवताओंका दर्शन कभी निष्फल नहीं जाता” ।५६। हे देवी मैं केवल यही वरदान माँगती हूं कि, कृष्ण मेरे बहुत जल्दी किंकर और भक्त बन जावें तथा मुझमें
आसक्त हो जावें । उनका चित्त रुक्मिणीमेंसे विरक्त हो जाय । बस तेरे प्रसादसे कृष्णका चित्त रुक्मिणीमेंसे उखड़ जाय, यही मेरी मनोकामना है ।५७-५८। हे भगवती ! वरदान देने में विलम्ब होगा तो श्रीकृष्ण रुक्मिणी सहित यहाँ प्रा जावेंगे, इसलिये कृपाकरके शीघ्र इच्छा पूरी कर ।२५९। मैं यही चाहती हूँ कि कृष्ण मेरे पास ऐसे खिंचे चले आवें जैसे बैल उस रस्सीके खींचनेसे खिंचा चला आता है, जिससे कि उसकी नाक नथी रहती है ।२६०। हे माता ! रुक्मिणीको कृष्णके हृदय में से अलग कर दे, बस इसी वरदानकी मैं याचना करती हूं। शीघ्रतासे मुझ पर कृपा कर ।२६१। इस प्रकार भक्तिपूर्वक प्रलाप करती हुई सत्यभामाने अपना मस्तक उस वनदेवताके चरणोंमें धर दिया ।२६२॥
सत्यभामाकी यह लीला श्रीकृष्णनारायणने वृनोंके कुंजमेंसे देखी। वे वहाँ से निकल आये। और सत्यभामाकी तरफ देखते हुए खिलखिलाकर हँसने लगे, बारम्वार हाथसे ताली पीटने लगे और सत्यभामाको चुभनेवाले ऐसे वचन बोले ।२६३.२६४। प्रिये ! जरा मेरा कहा सुन, सचमुचमें रुक्मिणी के चरणोंकी पूजा करनेसे ही सौभाग्यकी प्राप्ति होगी। जब रुक्मिणीको पूजाके प्रभावसे मनोवान्छित पदार्थ मिलता है, तो हे मानिनी ! उसकी ओर तू इतना घमण्ड क्यों रखती है ? यदि रुक्मिणीको
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