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चरित्र
श्रीकृष्ण सत्यभामाके पास फिर गये ।३७-३६।
कृष्णजीने सत्यभामाके महलमें जाकर कहा, देवी ! क्या तेरी रुक्मिणीसे मिलनेको उत्कण्ठा है।४। सत्यभामाने उत्तर दिया, प्राणनाथ ! आपकी बड़ी कृपा होगी, यदि रुक्मिणी बहनसे मुझे मिला दोगे।४१। तब कृष्णजीने जबाब दिया, प्रिये ऐसा कर, तू बहुत जल्दी उपवन में पहुँच जा, पीछे रुक्मिणी भी वहीं अा जायगी।४२। मैं उसके महलमें जाता हूँ और उसे भेज देता हूँ। ऐसा कह कर श्रीकृष्ण शीघ्र ही उसी बनमें चले आये और सत्यभामा तथा रुक्मिणीके रूपयौवन सम्बन्धी अभिमानको देखने के लिये कौतुकसहित अशोक वृक्षके पास वृत्तोंके कुजमें छुपकर बैठ गये।२४३ २४४॥
श्रीकृष्णके चले जानेके पश्चात् रूपयौवनसम्पन्न सत्यभामा वस्त्राभूषणोंसे शृंगारित होकर उसी वनमें पहुँची।४५। उस वनके मध्य भागमें प्रवेश करते ही अशोक वृक्षके नीचे शिलापर किसीको बैठा देखा, जिससे उसके मनमें तरह २ की लहरें उछलने लगी कि यह कोई वन देवी है, अथवा किसी सिद्ध पुरुषकी कन्या है। किन्नरी है कि देवांगना ही स्वर्गसे उतर आई है। कोई नागकुमारकी स्त्री है कि चन्द्रमाकी भार्या रोहिणी है । कामदेवकी स्त्री रति है कि, सरस्वती है, अथवा लक्ष्मी ही है । सचमुच में यह कुमारी कौन है ।४६-४८। मुझे तो यह मालूम होता है कि वास्तवमें मेरे पुण्यके उदयसे यह मनोहर वनदेवी ही प्रगट हुई है ।४६। (सुना भी है कि) पुण्यके उदयसे देव प्रगट होते हैं। जो पुण्यहीन पुरुष होते हैं, उन्हें देवताके दर्शन कभी नहीं मिलते ।५०। इस लोकमें देवताका अाराधन सचमुच में इष्ट वर पानेका कारण है, इसलिये अर्थात् कृष्णजीको अपने वशमें करनेके लिये में यदि भक्ति भाव से इस वन देवताकी उपासना (पूजा) करूं तो अच्छा हो ।५१। इसप्रकार वस्त्र-प्राभूषणोंसे सुशोभित सत्यभामाने बड़ी देरतक अपने दिलमें इसी बातका विचार किया, पश्चात् उसने स्नान करने के लिये बावड़ीमें गोता लगाया । सो देखा ही जाता है कि, जिसे जो कार्य सिद्ध करना होता है, वह उसके
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