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प्रद्युम्न
| चरि
सर्व प्रकारके भूषण शरीरमें धारण कर लो। सारांश यह है कि देवांगनाके समान अपना सुन्दर रूप बनालो और सत्यभामाके उपवनमें (बगीचेमें) जैसे मैं बताऊँ, उस तरह जाकर बैठ जाओ ।२८-२९। रुक्मिणी बोली, जो स्वामीकी आज्ञा हो मुझे प्रमाण है । ऐसा कहकर जब उसने उसी प्रकारका श्रृंगार कर लिया, तब श्रीकृष्णजी अपनी विभूषिता प्राणप्रियाको उपवनमें ले गये ।३०। वह नाना प्रकारके वृक्षोंसे भरा हुआ था। स्थान २ में फूलोंकी रजके ढेरके ढेर लग रहे थे। उनकी सुगंधसे भौरोंकी पंक्ति उड़ रही थी। वह ऐसी मालूम होती थी मानों रुक्मिणीके आगमनको जानकर तोरण ही बाँधा गया हो ।३१॥ अनेक वृत्त जिनकी शाखाओंके अग्रभाग पवनके चलनेसे कम्पायमान हो रहे थे, ऐसे दीख पड़ते थे, मानों ( खुशीमें आकर ) ताण्डव नृत्य ही करते हैं । बोलते हुए पक्षी ऐसे मालूम पड़ते थे | मानों बन्दीजन जयकारमिश्रित स्तोत्र ही पढ़ रहे हैं ।३२। और कोयलके कूकनेको सुनकर मोर नाच रहे थे, इस प्रकारके मनोहर वनमें रुक्मिणी कृष्णजीके साथ गई ।२३३। और ऐसी शोभायमान हुई, जैसे नंदनवनमें इन्द्र के साथ इन्द्राणी जाती है और शोभायमान होती है। उस वनमें एक मनोहर बावड़ी थी, जिसकी सीढ़ियाँ सुवर्णकी बनी हुई थी, जिसमें अथाह जल भरा हुआ था, राजहंस बैठे हुए थे, कमलसमूह खिन रहे थे, और श्वेत चकवा चकवीका जोड़ा भी बैठा हुआ था ।३४-३५। उस बावड़ीके किनारे रत्नोंके बने हुए थे और उसमें जलचर जीव भरे हुए थे। उसीके पास एक अशोक नामका वृक्ष था ।३६। जिसके नीचे एक उत्तम स्फटिककी शिला पड़ी हुई थी उसके ऊपर श्रीकृष्णजी ने रुक्मिणीको पर्यकासनसे बैठा दी। उसके बायें हाथमें करवीरके (कनेरके) वृक्षकी एक शाखा भ्रमरादि उड़ानेके लिये दे दी और दाहिने हाथको मुखपर रख दिया। इस तरह श्रीकृष्णने रुक्मिणी को साक्षात् वनदेवीके रूपमें स्थापित करदिया और कह दिया कि जब तक मैं फिरकर न आऊ प्रिये ! तुम मौन सहित इसी भाँति बैठी रहना अपने आसनको कम्पायमान न करना। ऐसा कहकर
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