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तो मेरी छोटी बहिन है, जिसे आप राजा शिशुपालको मारके हर लाये हैं ! वह मेरे सामने छोटीसे ॥ बड़ी हुई है, इसलिये मैंने तो जान बूझकर उसके झूठे तांबूलका अपने मुखपर लेपन किया है । चरित्र कारण कि, छोटी बहिनके मुखके भोगका जो ताम्बूल प्राप्त हुआ है, उसका स्पर्श मुझे सुखदाई होगा। जिस रुक्मिणीका मैंने मल मूत्र धोया है, और जिसे मैंने बाल्यावस्थासे बड़ी की है, उसके अङ्ग की भोगी हई चीजसे मुझे कभी ग्लानि नहीं हो सकती। आप बिना कारण क्यों हँसी उड़ा रहे हैं ? ।२१५. २१९ । तब श्रीकृष्ण बोले, देवी ! अच्छा है। रुक्मिणी का उच्छिष्ट तांबूल तुझे प्रिय लगता हो, तो मैं निरन्तर ला दिया करूंगा, सो उसका प्रतिदिन इसी तरह लेप किया करना ।२२०॥
सत्यभामा बोली, बहुत अच्छा ! आप ऐसा प्रिय तांबूल मेरे वास्ते प्रतिदिन ले आया कीजिये १२२१॥ भला जिस तांबूलकी रुक्मिणीके मुखसे उत्पत्ति हो और जो प्राणनाथके अंचलसे बँधा हो, वह मुझे प्यारा क्यों न होगा ? इसमें क्या हँसनेकी बात है ।२२२। तब कृष्णमहाराज बोले, खैर ! ऐसा ही मही, मैं अब न हँसूगा, यह तुम निश्चय समझो। ऐसा कहके और मौन धारणकर कृष्ण महाराज वहीं विराजे ।२२३। कुछ समयके पीछे सत्यभामाने श्रीकृष्णसे कहा, मेरे मनमें रुक्मिणीसे मिलनेकी अभिलाषा लग रही है ।२२४। तब कृष्णजीने उत्तर दिया, देवी ! सत्य समझो, मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा। जब रुक्मिणी तुझे ऐसी प्यारी लगती है, तो हे विचक्षणे ! उसका मिलना कोई कठिन कार्य नहीं है ।२५। ऐसा कहकर थोड़ी देर वहाँ और बैठकर कृष्णजी धीरेसे सत्यभामाके महलसे बाहर निकल आये और प्रेमके भारसे झूमते हुए वे रुक्मिणीके महल को चले गये ।२२६॥
कृष्णजीको आया हुअा जान रुक्मिणी एकदम उठी और विनयसहित प्राणनाथके चरणोंमें झुक गई। सो ठीक है "कुलीन स्त्रियोंकी ऐसी मर्यादा होती है”।२७। कृष्णजी बोले, प्रिये जरा मेरे कहे अनुसार सज धजके तैयार तो हो जायो । सफेद वस्त्र व लाल कंचुकी (कांचली) पहन लो। तथा
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