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धोखा दिया जाता है और मेरी सौत रुक्मिणीको सौभाग्यके बढ़ानेवाली ऐसी २ सुगन्धित चीजें दी जाती हैं। ऐसा रोष करके और कृष्णको निद्रावश जानकर उसने धीरेसे वह पानका उगाल निकाल चरित्र लिया और चन्दनके चकलेपर रखके उसे मूठियेसे घिस लिया व सौभाग्यवर्धक चूर्ण जानकर सत्यभामा ने उसका अपने मुख और शरीर पर लेप कर लिया ।२०१-२०६। और विचारा कि, अब निःसन्देह कृष्णजी मेरे वशमें हो जायगे । २०७।
__ जब चिंताग्रसिता मूढमती सत्यभामाका चित्त चूर्ण संलेपनके कारण हर्षसे फूल रहा था, तब कृष्णजीने धीरेसे अपना मुख उघाड़ा और खिलखिलाकर कहा, मूर्खे ! तूने यह क्या लोकनिंदित काम करना प्रारंभ किया है ? तू तो बड़ी पवित्र दीख पड़ती थी। भला रुक्मिणीके मुखका झूठा ताम्बूल तूने अपने मुखमें कैसे लपेट लिया ? रुक्मिणीने सुपारी-कपूर आदि डालकर एक पानका बीड़ा चबाया था, जिसमें उसके मुखकी लार लग रही थी। उसे उसने हँसीके लिये मेरे अंचलमें बाँध दिया था। सत्पुरुष तो ऐसी झूठी चीजको छूने तक नहीं हैं । भला तूने इसे अपने मुखपर कैसे चुपड़ लिया ? ऐसा कहकर श्रीकृष्णनारायण जोरसे ताली पीट पीट कर बारम्बार हँसने लगे।२०८-२११। फिर बोले, हे विशालनेत्रे ! प्रथम तो तू मेरी प्राणसे प्यारी रानी है, दूसरे तेरा पिता विद्याधरोंका नायक है, तीसरे तू मेरी सब राणियोंमें अग्रसर पटरानी है, इतने पर भी तूने ऐसा लोकनिंद्य कर्म कैसे किया ? ।२१२-२१३। यह नीतिकी बात है कि नदी और स्त्री इनकी स्वाभाविक गति नीचेकी तरफ ही होती है, अतएव स्त्रियें नीच कर्म करने वाली होती हैं, ऐसा जो मनुष्योंका कथन है, वह सत्य जान पड़ता है ।२१४। इस तरह श्रीकृष्णजीने गहरे गहरे ताने मारे और खूब ठट्ठा मस्वरी उड़ाई, जिससे सत्यभामा अतिशय लज्जित हुई । अपने अपमानके दुःखको जीमें दबाकर वह वाह्यमें (अपनी भूलको छुपाने के लिये) चतुराईसे बोली-मूर्ख स्वामिन् ! आप वृथा ही क्यों मुंह फाड़ फाड़ कर हँसते हैं ? रुक्मिणी
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