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चरित्र
सत्यभामाके पास जाया करते और उसे चिड़ाया करते कि "क्यों तुझे याद है न ? जो तूने मेरी । तरफ उस समय अपने रूपके घमंडमें आकर टेढ़ा मुख किया था ?” ठीक ही है अपने शत्रुको दुःखी देख कर किसको सुख नहीं होता ? ।१७८। रातमें दिनमें स्वप्नमें तथा जाग्रत अवस्थामें श्रीकृष्णके चित्तमें रुक्मिणी सुन्दरीकी ही छवि बस गई । यहाँ तक कि कृष्णजीने दूसरी रानियोंका स्मरण करना भी छोड़ दिया। सो ठीक ही है, गुणोंका आदर सब कोई करते हैं। केवल विद्या और उत्तम कुलसे ही कार्य नहीं सिद्ध होता। देखो ! विद्याधर की पुत्री सत्यभामा जो विद्यावान और उत्तम कुलवाली थी उसकी भी सुध विसार दी गई ।१७६ । एकदिन जब श्रीकृष्ण कामक्रीड़ाके सुखोंका अनुभव कर रहे थे, तब एक परम आनन्दकारी सुनने लायक वार्ता हुई, जो यहां वर्णन की जाती है ।१८०।
रमण करनेके पश्चात् रुक्मिणीने अपने स्वामीसे कहा, प्राणनाथ आपसे में एक बात पूछती हूँ। मैंने पहले सुना था कि सत्यभामा नामकी रानी आपको प्राणसे प्यारी है। परन्तु अब तो आप उसके महलमें बिलकुल नहीं जाते हो, इसका क्या कारण है ? ।८१-८२। तब श्रीकृष्णजीने उत्तर दिया प्रिये ! सुनो, इसका कारण यह है कि, सत्यभामाको अभिमान बहुत रहता है और वह मुझे पसन्द नहीं है । भला ऐसे सुवर्ण के गहनोंसे क्या लाभ जिनसे कान खण्डित हो जाँय,भावार्थ-"उस सोने को जारिये जामों टूटें कान" ८३-८४। तब रुक्मिणीने वड़े विनयके साथ कहा, नाथ भला जो वस्तु जिसके हाथ लगी है, वह उसको कैसे छोड़ सकता है, सुवर्ण कानका खण्डन करे, तो क्या कोई उसे त्याग देता है ।८५-८६। रुक्मिणीके नीतियुक्त उदार वचन सुनकर कृष्णजी बहुत संतुष्ट हुए और बोले प्रिये मैं तेरे कहनेसे उसके पास जाऊँगा।८७। उससमय रुक्मिणीने खैर, चूना, सुपारी आदिका एक पानका बीड़ा चबाया था, सो उसको जब उसने जमीन पर थूक दिया, तब कृष्णजीने (दृष्टि छुपा कर) उस उच्छिष्ट पानके उगालको उठाके अपने दुपट्टे के छोरसे बांध लिया और थोड़ी देरके बाद वे
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