________________
प्रग्रम्न
४५
दान पुण्यत्रतादिका आचरण किया है, जिससे कृष्ण जैसे तीनखण्ड पृथ्वी के राजाको प्राप्त किया है । यह बड़ी पुण्यवती है । कारण "पुण्यहीन पुरुषके मनोरथ कदापि सफल नहीं होते” । १६३-१६५। राजमार्गसे जाते हुए श्रीकृष्ण और रुक्मिणीने स्त्रियोंके मुख से ऐसे नाना भांति के वाक्य सुने । १६६ । रुक्मिणीको द्वारिका नगरीके देखनेसे जिसमें कि जिनेन्द्र भगवान के अनेक मन्दिर शोभायमान थे अत्यन्त प्रसन्नता हुई । १६७। वह अपने मन में विचारने लगी कि, मैं यानन्दसे प्रत्येक दिन जिनमन्दिरोंकी वन्दना करूंगी और इस मनुष्य पर्यायको सफल करूंगी । १६८ ।
I
ज्योंही रुक्मिणी सहित श्रीकृष्ण नारायण अपने महल में पहुँचे, सौभाग्यवती स्त्रियोंने आरती उतारी और मंगलीक गीत गाये । जब कृष्णराज अपने महल में पधारे तब बलदेवजी भी अपनी प्राणबल्लभा रेवती के दर्शनोंकी उत्कण्ठा से अपने स्थान पर पधारे और वहाँ जाकर सुखसे तिष्ठे । सो ठीक ही है संसार में कर्तव्यकर्म कर चुकनेपर ऐसा कौन मनुष्य है, जो सुखको नहीं प्राप्त होता । ६६-७० । कृष्णजीने रुक्मिणी अधिकार में अपना नौखण्डका महल सौंप दिया, जो धनधान्यसे भरपूर था, जहाँ दासी दास टहल चाकरीमें हाजिर थे, और जो रथ, पालकी, हाथी, घोड़े, अनेक प्रकारके लड़ाई के शस्त्र और कृष्णके आभूषणोंसे सजा हुआ था । ७१-७२ । श्रीकृष्णजीने उसी समयसे दूसरी जगह जाना बन्द कर दिया और भोजन, स्नान, आसन शयनादि समस्त नित्य क्रिया उसी रुक्मिणी के महल में करने लगे । ७३ । सच पूछो, तो श्रीकृष्ण के मन, वचन, कार्य में सर्वत्र वही गुणवती बुद्धिमति रुक्मिणी बस गई ।७४ | सत्यभामा विद्याधरी कृष्णजीके वियोग की पीड़ासे दुबली पड़ गई । परन्तु अभिमान के मारे उसने इसकी बिलकुल परवाह न की । १७५ । जब श्रीकृष्ण इस प्रकार रुक्मिणी के मुखकमल के भौंरे बन गये और दिलभर सुखसागर में मग्न हो गये । १७६ | तब नारदजी सत्यभामा को कृष्णजी की वियोग अग्नि से दग्ध दुःखी देखकर और अपने मनोरथको सफल जानकर बड़े सुखी हुए । ७७ । वे बारम्बार प्रतिदिन
१२
For Private & Personal Use Only
Jain Educatch International
चरित्र
www.jainborary.org: