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वर्णन कर सकता है ? | १३५ । वन उपवनों की शोभा को देखते हुये और तरह तरहके विनोद करते हुए नवे रैवतक पर्वतपर पहुँचे। उस पर्वतको देखकर रुक्मिणी के चित्तमें बड़ी प्रसन्नता हुई । १३६ । नन्दनवन के चरित्र समान वृक्ष और लताओं से भरे हुए उस बनमें बलदेवजीने कृष्ण और रुक्मिणीका पाणिग्रहण (विवाह) कराया |३७| सो उसी समय से वह स्थान पृथ्वीतलपर रुक्मिणीवन के नाम से प्रसिद्ध होगया । ठीक है, बड़े पुरुषोंकी संगति से किसमें बड़प्पन नहीं या जाता है ? | ३८ | महत्पुरुष किसी भी ग्राम में वा वनमें क्यों न जावें, वहाँ भी पुण्योदयसे सब बातका ठाठ रहता है | ३६ | उस नन्दनवन के समान वनमें श्री कृष्ण नवोढ़ा रुक्मिणी के साथ क्रीड़ा करने लगे |४०| तथा वे रुक्मिणी और बलदेवके समीप रहनेसे उस बनको स्वजनसमूहसे भरे हुए नगर के समान ही मानकर वहाँ ठहर गये |४१ ॥
इतनेमें द्वारिकानगरी में खबर फैल गई कि श्रीकृष्ण शत्रु को जीतकर और रुक्मिणीको साथमें लेकर बलदेवसहित रैवतकगिरिपर पधारे हैं, इससे उन्हें अथाह आनन्द हुआ । ४२-४३ । उन्होंने तोरणों तथा पताका नगरीको शृंगारित किया, मार्ग में पुष्प विछा दिये और चन्दनके जलका छिड़काव करा दिया | ४४ | जब नगरी इस प्रकार सजा दी गई तब कृष्णराजके कुटुम्बी तथा प्रजाके लोग भांति २ के आभूषण पहनकर और हजारों प्रकारके बाजे तथा अनेक स्तुतिपाठकों को (भाटोंको) साथमें लेकर सन्मुख (पेशवाई में) गये और बड़े उत्साहसे श्रीकृष्णनारायण तथा बलदेवजी से मिले ।४५-४६ । कृष्णजी ने आदर सन्मान करके अपने समस्त मित्र व बन्धुगणों को प्रसन्न किया और श्रीकृष्ण, रुक्मिणी तथा बलदेवजीने रथमें बैठकर द्वारिका नगरी में प्रवेश किया । ४७ ।
जब श्रीकृष्णने द्वारिकापुरीमें प्रवेश किया, तब नगरनिवासी लोग बड़ी उत्कंठा से मार्ग में वर और वधू को देखनेके लिये प्राये । ४८ । नगरनिवासिनी कौतुकाभिलापिनी स्त्रियों के तरह २ के विनोद हुए । अर्थात् वरवधू को देखनेकी उमंग से स्त्रियें अपने शरीर की सुध भी भूल गईं, जैसा कि यहाँ संक्षेप
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