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चरित्र
| क्या है ? ।६१। हे भीष्मराज! तुम्हारी पुत्रीको द्वारिका का राजा और उनके भाई बलदेवने हरी है।६२। हे रूप्यकुमार ! सुनो, मैंने तुम्हारी बहिनको हरी है। तुम्हारी शूरता, तुम्हारा अभिमान और तुम्हारा धैर्य किस कामका ? । ६३ । यदि तुममें सामर्थ्य हो, तो मेरे रथके पीछे पात्रो और अपनी बहनको छुड़ाओ । यदि तुममें कुछ साहस नहीं है, तो तुम्हारे जीवनको धिक्कार है । ६४ । यदि तुम सबके सामने मैं रुक्मिणीको हरके लेजाऊ तो तुम्हारी शूरवीरता, और सामर्थ्य सचमुच ही व्यर्थ है।६५। हे राजाभो ! मेरे साथ संग्राममें युद्ध किये बिना तुम सबके सब किसप्रकार कृतार्थ हो सकते हो।६६। ऐसा कहके कृष्णजी अपने उत्तम रथको युद्ध करनेके लिए वनके बाहिर लंबे चौड़े मैदानमें झपाटेसे ले गये । ६७ । उसी समय शिशुपालादिक सबके सब कृष्णके वचन और रुक्मिणीका हरण सुनकर घबराये । ६८ । पश्चात् भीष्मराज और रूप्यकुमारकी सब सेना कुंडनपुरके बाहर निकली। ६९ । शिशुपालकी सागरके समान सेनामें हलचल मच गई और उसकी शस्त्र कवच आदिसे सजी हुई सेना "उस दुष्ट, चोर, डाकूको पकड़ो ! पकड़ो !” ऐसी चिल्लाहट मचाती हुई शहरसे बाहर निकली जिसमें हाथी घोड़े रथ प्यादे और नौकर चाकरोंकी टोलीकी टोली थी।७०-७१। बाजोंकी आवाजसे हाथियों के चीत्कारसे, घोड़ोंके हिनहिनानेसे,भाट लोगोंके जयकारेके शब्दोंसे,रथोंके चक्कोंके चीत्कारसे,धनुषों की भन्नाहटसे और सुभटोंकी खिलखिलाहटकी हँसीके मारे कानोंसे सुनाई ही नहीं पड़ता था ।७२-७३। चारों तरफ फैली हुई, पीठ पीछे भागती हुई और जोरसे आती हुई सब सेनाको बलदेव और कृष्णने रोक लिया । ७४ । जिसप्रकार जोरशोरसे ऊंची उठी हुई नदियोंके वेगको समुद्र रोक लेता है, उसी प्रकार उन दोनों भाइयोंने क्षणमात्रमें सब सेनाको रोक लिया ७५। जब रुक्मिणीने एक तरफ तो सैकड़ों सुभटवाली सम्पूर्ण सेनाको और दूसरी ओर अकेले कृष्ण बलदेव दो ही पुरुषोंको देखा, तब उसने विचारा कि न मालुम क्या होनहार है ? अभाग्यके वशसे इन दोनोंकी आयुका नाश होता
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