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चरित
रुक्मिणीने वहाँ पुकारकर कहा, यदि मेरे पुण्योदयसे द्वारिकानाथ यहाँ आये हों, तो मेरी पुकार सुन कर मुझे शीघ्र दर्शन देवें।४१-४७। उस कुमारीने ज्यों ही ऐसे शब्द कहे, त्यों ही वृक्षोंके कुजमेंसे निकलकर रूपवान कृष्ण बलदेव उसके सन्मुख खड़े होगये।४८। अपने स्वामीको सन्मुख खड़ा देख कर वह अपना मस्तक नीचे झुकाकर अँगूठेसे जमीन खुरचने लगी।४९। श्रीकृष्णने रुक्मिणीसे कहा सुंदरी ! तेरे वचनानुसार द्वारिकाका स्वामी उपस्थित हुआ है ।५०। अतएव तू प्रसन्न होकर उसकी
ओर देख ! कृष्णजीके वाक्योंको सुनकर रुक्मिणीने लज्जावश अपना मुख नम्रीभूत ही रखा। उसका कंधा कम्पित होने लगा। मानो शिशुपालके भयसे ही उसका शरीर कम्पायमान हो रहा था। । ५१-५२ । इतनेमें रथ को सजाकर तथा घोड़ोंको जोतकर बलदेवजी बोले “स्त्रियोंको स्वभावसे ही लज्जा होती है । फिर कन्याओंको तो होनी ही चाहिए ।५३। इसलिए कृष्ण ! तू क्या देख रहा है दोनों हाथ पकड़के इसे शीघ्र रथमें बैठा ले । स्त्री चरित्रको तू नहीं जानता। सचमुचमें तु पूरा गोपाल अर्थात् गाय भैंस चरानेवाला ही है" । ५४ । तब प्रेमपूरित कृष्णजीने रथमें बैठा लेनेके छलसे रुक्मिणीका आलिंगन किया । ५५ ।
रुक्मिणीको बिठाकर बलदेवजी और कृष्ण जी रथमें आरूढ़ हो गये। तब बलदेवजीने सपाटेसे रथको चलाया और रथमें श्रीकृष्णने अपना शंख बजाकर बड़ी वीरताके शब्द कहे. तथा जोरसे सबको अपना वृत्तांत कह सुनाया कि-५६-५७। जो कोई शिशुपालके दलके वा कुण्डनपुरके रहनेवाले हों, वे मेरे पराक्रमके वचन सुनें, मैंने अर्थात् कृष्ण नामके शूरवीरने रुक्मिण को हठसे हरण की है.सो जिस किसीकी शक्ति हो,वह मुझसे रुक्मिणीको छुड़ा लेवे ।५८-५९) यदि तुम सबके देखते २ रुक्मिणी हरी जाय,तो राजा लोगोंकी तुम जैसे सेवकोंसे क्या कार्य सिद्धि हो सकती है ? ६०हे शिशुपाल राजाधिराज ! मेरी बात सुनो, भला जब रुक्मिणीको मैं हर ले जाऊं,तब तुम्हारे जीवनसे
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