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अद्यम्ना
वरित्र
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की इच्छासे रुक्मिणीने यह यात्रा बनमें मनाई है । और सौभाग्यसे राजा शिशुपाल ही उसके होनहार पति दीखते हैं, तो भला कामदेवकी यात्राको रुक्मिणी क्यों न जाय ? । २८-३२ । उस मूर्तिकेचा सन्मुख शिशुपाल राजाकी कुशलादि प्रार्थना की जावेगी, सो देखा ही जाता है कि स्त्रिये अपने पति पुत्रादिकी कुशलता हरएक प्रकारसे चाहती हैं । ३३ । ये वचन सुनकर सिपाहीने राजा शिशुपाल के पास जाकर सब वृत्तांत कह सुनाया। ३४ । सुनते ही राजाका जी पानी पानी हो गया । वह हर्ष वा प्रेमसे रुक्मिणीकी वांछा करने लगा। उसने अपने सिपाहियोंको हुक्म देदिया कि, बिलकुल रोक टोक मत करो। रुक्मिणीको बनमें जाने दो। सिपाही तत्काल पहुंचे और उन्होंने उस स्त्रीसमूहको वन की तरफ जाने दिया। जब वे सबकी सब प्रमद बनके पास पहुंची, तब भुषाने सबको रोककर रुक्मिणी से कहा, बेटी ! यह है, जिसमें तेरा देवता स्थापित है । और जिसकी यात्राको तू आई है। अब तू ही अकेली बनमें जा और अपने देवकी भक्तिपूर्वक उपासना कर । ३५-३६ ।
तब रुक्मिणी मंद २ गतिसे पूजनकी सामग्री लेकर बनमें गई और वहां चारों तरफ इसप्रकार देखने लगी, जैसे मुडसे विछड़ी हुई मृगी चहुंओर झांकने लग जाती है । ४० । कृष्णराजने वृक्षों के कुजमेंसे छुपे हुए उस मनोहर अंगकी धारण करनेवाली, शुभलक्षणा, घूघरवाले केशवाली, कामवाण के समान नेत्रोंवाली, चन्द्रके समान सुदर मुखवाली और कंबुके समान सुदर कण्ठवाली रुक्मिणीको देखा जिसका शरीर पतला था,जिसके कुच पुष्ट और ऊंचे थे, जिसकी आवाज सारंगीके समान सुरीली थी,जिसकी भुजा मालती पुष्पके समान कोमल थी,जिसका वर्ण ताये हुए सुवर्णके समान था, जिसकी कमर नाजुक थी और जिसके स्थूल नितम्ब मण्डल दिशाओंके हाथियोंके समान थे,मेखलासहित जिस के पाँव कामदेवके निवासस्थान थे,जिसकी सघन उन्नत जाँघ कदली वृक्षके स्तम्भके समान थी,जिसके चरण कमलके समान सुन्दर थे,जिसके नूपुर बज रहे थे और जिसकी चाल हंसनीके समान थी, उस
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