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शोभित इन्द्रका बगीचा [ नन्दनवन ] ही कुण्डनपुरको देखने की अभिलाषासे पृथ्वीपर आया है| १ | इस उपवन में इन्द्र और उपेन्द्र के समान दोनों यादवोंने अर्थात् श्रीकृष्ण और बलदेवने प्रवेश किया और गे बढ़कर शोकका नाश करनेवाला अशोक वृक्ष देखा, जिसके ऊपर मनोहर पताका फहरा रही थी और नीचे कामकी मूर्ति स्थापित हो रही थी । २ - ३ | उस मूर्ति को देखकर श्रीकृष्णको सन्तोष हुआ । तब रथ के घोड़े खोल दिये गये । ४ । तथा कृष्ण और बलदेव जिनके चित्तमें रुक्मिणी बसी हुई थी, निकटवर्ती वृक्षोंके सघन स्थान में छुपकर बैठ गये । ५ । उसी समय मनुष्यों को आनन्दित करनेवाला एक दूसरा वृत्तांत हुआ :
द्वारिका से चलकर नारदजी चन्देरीके राजा शिशुपाल के पास पहुँचे । ६ । राजाने उनका सन्मान किया । नारदजीने पूछा – सच सच तो कहो, क्या कार्यवाही चल रही है ? तब राजा शिशुपाल मुस्कराये और बोले, भगवन् ! आपके प्रसादसे जो कार्य चल रहा है, वह शुभरूप और सत्यार्थ ही
। तब नारदजीने बनावटी स्नेहसे कहा, तुम मुझे अपनी लग्नपत्रिका तो दिखाओ, मैं भी जरा देखूं । तब राजाने मुनिके हाथमें अपनी लग्न पत्रिका दी । ६ । कलहप्रिय नारद लग्न देखकर और बहुत देर तक चिन्ता चक्रमें पड़कर अपना मस्तक धुनने लगे । १० । उनकी ऐसी चेष्टा देखकर शिशुपालने पूछा, स्वामिन्! आपने शिर क्यों धुना ? । ११ । तब नारदजी बोले राजन् ! मुझे लग्न के समय आपके शरीर में कष्ट होने के कारण दीख पड़ते हैं । इसलिये आपको कुण्डनपुर बहुत साधनसहित सावधान होकर जाना चाहिये । १२-१३ । ऐसा कहके और एक नई कलह तथा शल्य खड़ी करके नारदजी हाँसे चम्पत हुये ।
नारद मुनिके चले जानेपर राजा शिशुपालको बड़ी चिंता उपजी । १४ । शंकित होकर उसने बड़ी सेना इकट्ठी की और अनेक प्रकारके साधनों सहित वह कुण्डनपुर खाने हुआ । १५ । पहुँचते ही
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