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प्रद्युम्न
भीष्मकी पुत्री रुक्मिणी जगतमें प्रसिद्ध है ।५२-५३। उसे रूप्यकुमारने संग्रामसे लौटकर सन्मानसे सन्तुष्ट होकर शिशुपाल राजाको देनी करदी है।५४। प्रथम ही गुरुजनों व बन्धुओंसे बिना पूछे || चरित्र रूप्यकुमारने चेदिराजको रुक्मिणी देनेका बचन दे दिया था पश्चात् जब वह घर आया और उसने अपने कुटुम्बियोंसे कहा, तब उन सवने भी उसने जो कुछ किया स्वीकार कर लिया। कारण शिशुपाल योग्य है और योग्य पुरुष किसको प्यारा नहीं है ।५५-५६। आंगनमें इकट्ठे होकर समस्त स्वजन बन्धुषोंने रुमक्णिी और शिशुपालकी लग्नतिथि निश्चय की है। और माघशुक्ला अष्टमीके दोपवर्जित शुभलग्नमें उनका विवाह होना नियत हो गया है ।५७-५८। रात्रि व्यतीत होनेपर दूसरे ही दिन प्रातःकाल नारदजी वहां पधारे । व प्रथम ही राजा भीष्मसे मिले । पश्चात् रणवासमें गये, जहाँ उन्हें पहले ही राजाकी विधवा बहिन मिली, जो बड़ी चतर और रणवासमें मन्मान पानेवाली है नथा जिस का भीष्मराजभी सत्कार करता है। विधवाने राज्यमान नारदजीको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके श्रासन दिया। पश्चात् उसीने राजाकी रानियोंसे नारदजीके पांव पड़वाये ।५६-६१। जब नारदजी श्रासन पर विराजमान हुए और उन्होंने कुशल क्षेम पूछा, तब रुक्मिणि साम्हने खड़ी हुई थी। उसे देखकर मुनिने भीष्मराजकी बहिनसे पूछा, यह सन्मुख खड़ी हुई वाला कौन है और किसकी पुत्री है।६२-६३। तब उसने उत्तर दिया, नाथ ! यह राजा भीष्मकी पुत्री है और रूप्यकुमारकी छोटी बहिन है ।६४। ऐसा कहकर विधवाने रुक्मिणीको मुनिके चरणोंमें नमाया, तब मुनिने उसे इसप्रकार उत्तम आशीर्वाद दिया कि “जो मुरारी (श्रीकृष्णनारायण) शत्र समूहको जीतनेवाला, द्वारिका नगरीका स्वामी और हरिवंश का शृंगार है, पुण्यके उदयसे पुत्री ! तू उसीकी पट्टरानी हो।” नारदके वचनोंको सुनकर रुक्मिणीको बड़ा आश्चर्य हुआ।६५-६७। नारदजी तो वहाँसे दूसरी जगह रवाना हो गये, परन्तु आपके स्नेहवश रुक्मिणीकी कैसी दशा हो रही है सो आप सुनिये ६८। उसको न कुछ अन्न रुचता है, न वह
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