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चरिक
प्रद्युम्न
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का और छठे सातवें आठवें भागमें क्रमसे संज्वलन क्रोध मान मायाका नाश किया। इसके पश्चात् सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें संज्वलन लोभ प्रकृतिका घात किया, और बारहवें तीणकषाय गुणस्थान में सम्पूर्ण घातिया कर्मों का नाश किया। इसमें ज्ञानावरणीकी ५, दर्शनावरणीकी ४, अन्तरायकी ५, निद्रा और प्रचला इसप्रकार सोलह प्रकृतियों का विच्छेद होता है ।७३-८७। इसके अनन्तर, आदि अन्तरहित, अज्ञानहीन, और सर्वाङ्गसुन्दर तेरहवें गुणस्थानमें प्रवेश किया-तथा जिसका कभी नाश नहीं हो सकता है, ऐसे लोकालोकको प्रकाश करनेवाले सुन्दर केवलज्ञानको प्राप्त किया-इंद्रियगोचर सुखका कारण और आत्माका सच्चा हित जिसमें है, ऐसा यह केवलज्ञान पुरुषोंको नहीं होता है । 1८८-६०। केवलज्ञान सूर्य का उदय होते ही एक छत्र, दो चँवर, और एक मनोहारी सिंहासन, ऐसी तीन दिव्य वस्तुएं देवोंकी बनाई हुई प्राप्त हुई। और इन्द्रकी आज्ञा पाकर कुबेरने बड़ी भक्तिसे ज्ञानकल्याणके लिए एक गंधकुटीकी रचना की।६१-६२।
प्रद्युम्नकुमारका केवल कल्याण जानकर असुरकुमार, नागकुमार आदि भवनवासी. किन्नर आदि व्यंतर देव, इन्द्रादि स्वर्गवासी देव, और सूर्य प्रादि ज्योतिषी देव, आनन्द, भक्ति और धर्म प्रीतिसे भरे हुए गिरनार पर्वतपर आये । इसीप्रकारसे अनेक विद्याधर और भूमिगोचरी राजा अपनी अपनी स्त्रियोंसहित तथा श्रीकृष्ण, आदि यदुवंशी राजा सुन्दर लीला नथा सुन्दर वेषके धारण करने वाले शम्बुकुमार आदि राजपुत्रों सहित अाये । सबने अानन्दके साथ केवली भगवानको प्रणाम किया
और जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, और सुन्दर फलादि द्रव्योंसे गंत, नृत्य, वीणा, बांसुरी, मृदंग आदिके साथ २ भक्तिपूर्वक पूजा की। इनके पश्चात् बहुतसे यादव भक्ति के प्रेरे हुए सवारियोंमें आरूढ़ हो होकर आये, पंचांग नमस्कार करके बैठ गये और धर्म श्रवण करने लगे। फिर जिनेन्द्रकथित धर्मका श्रवण करके और यथा योग्य नियम लेकर यादवगण अपने अपने घरोंको लौट
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