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चरित
प्रधान
पापरहित थे, ग्यारहवें दिन गिरनार पर्वतके एक ध्यानयोग्य वनमें पहुँचे। वहांपर उन्होंने अपने सम्यग्दर्शनकी सामर्थ्यसे दर्शनके नाश करनेवाले दर्शन मोहनीय कर्मका घात किया। फिर उसी रमणीकवनके एक आम वृक्षके नीचे जन्तु रहित निर्मल शिलापर वे पृथ्वीके समान क्षमावान मुनि पर्यकासन योगसे विराजमान हुए और चित्तको निरोध करके ध्यान करने लगे। नरकके कारणभूत रौद्र ध्यानको और तिथंच गतिके कारणभूत आर्तध्यानको छोड़ करके वे मुनिराज धर्मध्यानके बलसे मनको स्थिर करके और नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि जमा करके आमाके विचारमें लवलीन हुए। फिर क्रमक्रमसे जैसे २ कर्मशुद्धि होती गई, तैसे २ प्रमत्तादि गुणस्थानोंसे निकलकर ऊपर चढ़े। तथा चित्तका निरोध करके वे महामुनि उनके ऊपर श्रेणी प्रारोहण करनेके लिये उद्यत हुए। आठवें अपू. र्वकरण गुणस्थानमें आकर और क्रमसे उसको भी उल्लघन करके नवमें अनिवृत्तिकरणमें स्थिर हुए। उसके पहले प्राधे भागमें उन्होंने सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय किया 8 वे प्रकृतियां ये हैं:-१ निद्रानिद्रा, २ प्रचलाप्रचला, ३ स्त्यानगृद्धि, ४ नरकगति, ५ नरकगत्यानुपूर्वी, ६ तिर्यंचगति, ७ तिर्यंचग त्यानुपूर्वी, ८ उद्योत, ९ अातप, १० एकेन्द्री, ११ साधारण, १२ सूक्ष्म, १३ स्थावर, १४ द्वीन्द्रिय, १५ त्रेन्द्रिय, और १६ चतुरिन्द्रिय । दूसरे भागमें प्रत्याख्यानावरणी क्रोध मान माया लोभ और अपत्याख्यानावरणी क्रोध मान माया लोभ इन आठ प्रकृतियोंका घात किया। तीसरे भागमें नपुंसक वेद प्रकृतिका, चौथे में स्त्रीवेद प्रकृतिका, पांचवेंमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तथा पुरुषवेद
* ऊपर कहा है कि, प्रद्युम्न मुनिने गर्मी में, वर्षामें, शीतमें, कठिन परिषहें सही और यहां ग्यारहवें ही दिन केवलज्ञान होना कहा है। सो हमारी समझमें ऊपर का कथन सामान्य मुनियों की अपेक्षा है कि, मुनि शीत, वर्षाकी ऐसी ऐसी परिषह सहते हैं । प्रद्युम्नमे तो केवल ११ दिन ही तपस्या की है।
इन श्लोकोंमें प्रकृतियोंका क्रम ठीक २ नहीं दिया था। इसलिये हमने ग्रन्थान्तरोंसे स्पष्ट करके लिखा है।
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