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प्रव
चरित्र
बढ़ी ! और संसारकी अनित्यताका निरन्तर स्मरण करते हए अपनी आत्माका कल्याण करो” लोगों के इसप्रकार आशीर्वादरूपवचन सुनते हुए प्रद्युम्नकुमार गिरनार पर्वत पर पहुँच गये ।९३-६८।
वहां पर उन्होंने मानस्तंभोंसे युक्त भगवानका समवसरण देखा । उसके आँगनके पास पहुंचते ही उन्होंने हाथी परसे उतरकर राजवैभवकी छत्र चँवर आदि विभूतियाँ छोड़ दीं। पूर्वमें पाये हुए सोलह लाभोंको तथा सब विद्याओंको स्त्रियों के समान त्याग दी। विद्यानोंको छोड़ते समय उसने क्षमा मांग ली। इसके पश्चात् प्रद्युम्नने अपने सब इष्टजनोंसे बारम्बार क्षमा कराके समवसरणमें प्रवेश किया, जो आते हुए सुर और असुरोंसे संकीर्ण हो रहा था। वहां भगवानको नमस्कार करके हाथ जोड़े हुए कहा, “हे नाथ ! आप भव्य पुरुषोंको संसाररूपी समुद्रसे तारनेवाले हो, वरदानके देने वाले हो और भक्तजनोंके कष्टको दूर करनेवाले हो । हे जिनेन्द्र ! मुझे कृपा करके जन्म मरणको नाश करनेवाली दीक्षा दो।" यह कहकर प्रद्युम्नकमारने जो कुछ आभूषण पहन रक्खे थे. वे भी सब उतार दिये, पांच मुट्टियोंसे अपने सिरके केश उखाड़कर फेंक दिये । और समस्त सावद्य योगके उत्पन्न करने वाले परिग्रहको छोड़कर बहुतसे राजाओंके साथ दिगम्बरी दीक्षा ले ली। मोक्षके प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाला वह गुणवान कुमार संसारसे अतिशय विरक्त हो गया ।९६-१०८। उसी समय भानुकुमार ने भी वैराग्यके रंगमें रंगकर माता, पिता तथा बंधुनोंसे आज्ञा लेकर और अपनी समस्त राज्यविभूति को छोड़कर अनेक राजपुत्रोंके सहित निर्मल जिनदीक्षा ले ली। भानुकुमारके दीक्षा लेनेसे श्रीकृष्ण जी आदि सबही दुःखी हुए ।६-६१॥
इसके अनन्तर सत्यभामा, रुक्मिणी, जांबुवती आदि रानियोंने भी भगवानकी सभामें जाकर श्रीमति राजीमती आर्यिका समीप दीक्षा ले ली। उन सब स्त्रियोंके हृदयसे रागभाव धुल गये थे। श्वेत साड़ी धारण करके वे घोर तपस्याके लिये तत्पर होगईं ।१२ १५। प्रद्युम्नकुमार चारित्र धारण
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