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चरित्र
प्रद्युम्न ३३७॥
करके उत्कृष्ट तप करने लगा। स्वजन और परिजन उसकी वन्दना करने लगे। जगतका हित करने के लिये वह सोम अर्थात् चन्द्रमाके समान सौम्य गुणका धारक हुआ ।११५। इति श्रीसोमकीर्ति आचार्यकृत प्रद्युम्नचरित्र संस्कृतग्रन्थके नवीन हिन्दी भाषानुवादमें प्रद्युम्नकुमार भानुकुमार और ___ आठ पट्टरानियोंकी दीक्षाका वर्णनवाला पन्द्रहवां सर्ग समाप्त हुआ।
अथ षोडशः सर्गः। प्रद्युम्नमुनिको वैराग्यसे विभूषित, तपरूप लक्ष्मोसे शोभित और घोर तपस्या करते हुए देखकर श्रीकृष्ण बलदेव आदि मोहके वश दुःखी होकर द्वारिका को लौट आये और अपने कामकाजमें लग गये ।१-२। इधर कामदेव मुनि मुनियोंसे भी जो कठिनाईसे किये जाते थे, ऐसे तप करने लगे। सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र संयुक्त होकर देव गुरु शास्त्रकी त्रिधा भक्ति करते हुए उन्होंने अनेक लब्धियां प्राप्त कर लीं। उनके पारणे एक दिनके अन्तरसे दो दिनके तीन चार पांच पाठ पन्द्रह दिन
और महिने २ के अन्तरसे होते थे। अर्थात् वे एकसे लेकर महिने २ तकके उपवास करते थे। वे रागद्वेषसे रहित थे, परन्तु गुणरूपी सम्पत्तिसे रहित नहीं थे। काम क्रोधादि कषायोंको उन्होंने नष्ट कर दिया था; विषयोंसे वे सर्वथा निष्पृह थे। जिनागममें जो मुनियोंके आहारके लिये ३२ ग्रास कहे हैं, उन्हें घटाते बढ़ाते हुए नाना भेदरूप ऊनोदर तप करते थे । अर्थात् कभी एक ग्रास लेते थे, कभी दो ग्रास लेते थे, इस तरहसे तीन चार आदि ३२ ग्रास पर्यन्त श्राहार करते थे। इसके सिवाय जैनशास्त्रों में जो सिंहविक्रीड़ित, हारबंध, बज्रबंध, धर्मचक्र, बाल ? आदि नानाप्रकारके कायक्लेश तप कहे हैं, उनको भी वे पवित्र मुनि करते थे। गुड़, घी, तेल, दही, शक्कर, नमक आदि रस उन्होंने छोड़ दिये थे। सम्पूर्ण दोषोंसे रहित और पापारम्भवजित शुद्ध आहार, विरक्तचित्तसे केवल शरीर की रक्षा करनेके अभिप्राय से करते थे। प्रद्युम्नकुमारने जैसा तप किया, उसका वर्णन नहीं किया
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