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ओंसे घिरे हुये वे सूर्य के समान मालूम होते थे। गंगाकी धवल तरङ्गोंके समान चमर दुर रहे थे। ___ प्रद्युम्न | सोलहों आभरण उनके शरीरकी शोभा बढ़ा रहे थे । हृदयमें कौस्तुभ नामका मणि दैदीप्यमान हो रहा || चरित्र
था। मस्तकपर सफेद छत्र शोभित होता था। और उनका मुख फूले हुये कमलके समान था। लोग नानाप्रकार की कला और विनोदोंसे उनका चित्त रंजायमान कर रहे थे। परन्तु उनके हृदयमें थोड़ी सी शंकाकी छाया जान पड़ती थी।१-५। इतने में शांतशील, गुणवान और विद्यावान प्रद्युम्नकुमार राजसभामें आया और अपने पिताको नमस्कार करके सुन्दर सिंहासन पर बैठ गया। उस समय उसका चित्त विषयवासनात्रोंसे विरक्त हो रहा था। थोड़ी दूर बैठकर जब किसी चलती हुई चरचाका अन्त हुआ, तब उसने कठिनाईसे भी जो नहीं छोड़ा जा सकता है, ऐसे मोहको छोड़ करके, मस्तकपर अंजुली रखके अर्थात् हाथ जोड़ कर और अभयकी याचना करके कहा, हे पिता ! आपके प्रसादसे मैंने जाति रूप कुल आदि तथा सम्पूर्ण भोगकी सुखकारी वस्तुएं पाई हैं । परन्तु भोग करके जान लिया कि, कोई भी वस्तु शाश्वत सदा रहनेवाली नहीं है । हे प्रभो ! संसारकी स्थिति नित्यतारहित अर्थात् क्षणभंगुर है।६-११। इसलिये अब प्रसन्न हूजिये, और मुझे आज्ञा दीजिये, जो मैं आपकी कृपासे मोक्ष सुखकी प्राप्तिके लिये जो कि सदा शाश्वत है, कोई अच्छा उपाय करू। यह सारा संसार असार और दुःखकारक है इसलिये हे पिता ! मैं संसार भ्रमणकी मिटाने वाली जिन भगवानकी दीक्षा लेता हूँ ॥१२-१३॥
प्रद्युम्नकुमारके वचन सुनकर वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि सबके सब यादव शोकमें मग्न हो गये। मूछित होकर काठके समान हो रहे। उस मू से ही उन सबका मरण रुक गया, यह बात हम निश्चित् समझते हैं । अर्थात् मूर्छा न आती, तो कोई भी न बचता। मू के दूर होने पर उन सबने स्नेह वश होकर कहा, हे बेटा ! आज तू इतना कठोर क्यों हो गया है ? क्यों अब तू पहलेका प्रद्यु
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