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মহুল
इन्द्रजालके समान और पानीमें उठनेवाले फेनके समान क्षणस्थायी मृगतृष्णाके समान भ्रमरूप है । मनुष्योंका शरीर रोगका घर है, भोग भयंकर हैं, स्त्रियां अनेक दोषोंसे भरी हुई हैं, अर्थ (धन) अन- || चरित्र र्थो का करनेवाला है, मित्रता सदा स्थिर नहीं रहती है और जिसका संयोग होता है, उसका वियोग | होता है, ऐसा ध्यान करके लोगोंको तपोवनकी सेवा करनी चाहिये अर्थात् दीक्षा लेकर मुनि हो जाना चाहिये । संसारमें यही सार है। इसप्रकार चिन्तवन करते हुए पुरुषोंसे राग द्वेष करके ही मानों चन्द्रदेव भी रात्रिके साथ २ संसारसे विमुख होकर चले गये, जैसे कि सूर्य चला गया था। अर्थात् रात बीत गई, चन्द्रमा डूब गया।८४-८७।
प्रभातकी सूचना करनेवाले मुगों के शब्दोंके साथ २ नगाड़े बजने लगे। जो कि जागे हुए लोगोंको बहुत प्यारे लगते थे । गन्धर्वो के गीत होने लगे, और बन्दी जनोंकी जयजय ध्वनि होने लगी। सब लोग इन नानाप्रकारके शब्दोंको सुनकर जाग उठे । सूर्यदेव रात्रिको नष्ट करके और अंधकारका निराकरण करके उदयाचल पर्वतके शिखरपर आगये। सिन्दूरके समान लाल वर्ण, लोग जिसकी बन्दना करते हैं, ज्योतिषी देवोंका नाथ, और सौम्यरूप वह बालसूर्य पर्वतके मस्तकपर ऐसा मालूम पड़ता था, मानों आगामी दाहके मारे भयभीत हो रहा है-कांप रहा है।८८-९१७ इति श्रीसोमकीर्तिआचार्यकृत प्रद्युम्नचरित्र संस्कृतग्रन्थके नवीन हिन्दीभाषानुवादमें बलभद्र प्रश्न और जिनेन्द्रदेवकृत भविष्यनिरूपण नामक चौदहवां सर्ग समाप्त हुआ।
अथ पंचदशः सर्गः। एक दिन श्रीकृष्णनारायण राजसभामें दिव्य सिंहासनपर इन्द्र के समान विराजमान हो रहे थे यादवोंकी भीड़से सभा सब ओरसे भर रही थी। सामन्तों, मंत्रियों, विद्याधरों, और बलभद्रादि राजा
* दूसरी प्रतिमें ६१ नम्बरका श्लोक नहीं है और यहां सर्गकी समाप्ति भी नहीं है। पन्द्रहवें सगके अन्तमें सर्ग समाप्त किया है। ..
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