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चरित
है, ठीक उतना ही अन्तर श्रीनेमिनाथमें और संपूर्ण शूरवीरों में है ! जब संसारमें उनके समान शूरवीर तथा श्रेष्ठ सुभट दूसरा कोई है ही नहीं, तब हम, श्रीकृष्ण अथवा दूसरे तो किस गिनतीमें हैं ? ।१२-१५। इसप्रकार जब बलदेवजीने बारम्बार प्रशंसा की, तब श्रीनेमिनाथजी लज्जासे नीचेकी ओर देखने लगे।१६। उस समय श्रीकृष्णजीने नेमिनाथजीसे मुसकराते हुए कहा, प्रायो, हम और श्राप यहीं पर मल्लयुद्ध करें। ऐसा कहकर श्रीकृष्णजी धोतीकी कांछ कड़ी बांधकर खड़े होगये । यह देख कर नेमिकुमार बोले, यह कार्य सज्जनोंके योग्य नहीं है । हां ! यह मेरा पैर जो सिंहासनपर रक्खा हुआ है, यदि आप उठाकर अलग कर देवें, तो हे जनार्दन ! समझ लेना कि, मैं आपसे सब युद्धोंमें हार चुका ।१७-१६। जिनेन्द्रकुमारके ये वचन सुनकर श्रीकृष्णजी कमर कसकर उठे, और बड़े भारी वेगसे अपनी सारी शक्ति लगाकर उस वीरशिरोमणिका पैर हटाने लगे; परन्तु जीत नहीं सके । पैर नहीं हटा, तब बलवान श्रीकृष्णजीने क्रोधित होकर फिरसे प्रयत्न किया, परन्तु इसबार भी उनका पैर जरा भी न टसका । इससे वे बड़े ही व्याकुल हुए। भाईको खेदखिन्न देखकर नेमिकुमारने कहा, हे जनार्दन ! पैरको जाने दो, यह मेरे बाँयें हाथकी कनिष्ठिका (छोटो उंगली) है, इसीको चलाओ। तब श्रीकृष्णजी फिर भी सारी शक्ति लगाकर अपने दोनों हाथोंसे उस उंगलीपर झूम गये । परन्तु कुछ फल नहीं हुआ। नेमिकुमारने विनोदसे ऊंचा हाथ उठा कर उन्हें झूला झुला दिया ।२० २७ श्रीकृष्णजी इस लीलासे खेद खिन्न तो हो गये थे, उन्हें क्रोध भी आया था। परन्तु उस समय वे उसे दबाकर हँसते हुए बोले, "हमारे भाईका प्रचण्ड बल देखो ! इनके बलका क्या पार है ? और फिर अपने महलोंमें चले गये। नेमिकुमार भी स्वजन मित्रों के साथ अपने स्थानको चले गये ।२८-२९।
श्रीकृष्णजी चले तो आये, परन्तु उनका खेद दूर नहीं हुअा। उन्हें चिंता हुई कि श्रीनेमिकमार बहुत बलवान हैं । वे मेरा राज्य छीन लेंगे । तत्काल ही एक निमित्त शास्त्र जाननेवाला ज्योतिषी
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