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प्रद्युम्न
चरित्र
अथ त्रयोदशः सर्गः। श्रीकृष्णनारायण, विद्याधर और मनुष्य जिनकी सेवा करते थे ऐसे जरासंध राजाको युद्ध में | मारकर और सुदर्शन चक्र प्राप्त करके निष्कंटक राज्य करने लगे। कौरवपांडवोंका भारत युद्ध भी हो चुका । उसमें कौरवों का क्षय होगया। इसके पश्चात् श्रीकृष्णमहाराजके राज्यकालमें जो कुछ वृत्तांत हुआ, सो सब यहां पर वर्णन करते हैं;-११-३॥
एक दिन श्रीकृष्णजी बलदेव तथा प्रद्युम्नकुमार आदिके साथ सभामें विराजमान थे, सभा भर रही थी, इतनेमें श्रीनेमिनाथ भगवान अपने मित्रोंके साथ जो कि उनके साथ एक ही समय में उत्पन्न हुए थे, श्रा पहुँचे, उन्हें देखते ही जिनभगवानकी भक्ति करने वाले सारे सुभट उठ खड़े हुए। श्रीकृष्णजीने बैठनेके लिये उत्कृष्ट सिंहासन दिया, सो जिनभगवान बड़े भारी हर्षसे बैठ गये। सिंहासन नारायणके बिलकुल समीप रखा हुआ था। जब सव राजा लोग यथाक्रमसे बैठ गये, तब शूरवीरोंके बलकी चर्चा चलने लगी।४-७॥
कई एक सुभट बोले, महाराज वसुदेव बड़ी भारी शक्तिके धारण करनेवाले हैं। कोई पांडवों के बलका वर्णन करने लगा। कोई कहने लगा, यह प्रद्युम्नकुमार निश्चयसे बड़ा बलवान है। किसीने शम्बुकुमारकी प्रशंसा की और कोई भानुकुमारकी कीर्ति गाने लगा। किसीने कहा, नहीं; श्रीकृष्णजो बड़े बलवान हैं । उनके समान पृथ्वीपर न कोई वीर हुआ है और न होगा। और किसीने बलभद्रजी के बलकी प्रशंसा की। सारांश यह कि, जिसके चित्तमें जिसकी शूरवीरता जमी हुई थी, सभामें उसने उसकी प्रशंसा की।८-११। सबकी कीर्ति सुनकर बलदेवजी मस्तक हिलाते हुए बोले, अरे मूखों ! तुम दूसरे शूरवीरोंकी क्या प्रशंमा कर रहे हो ? जहां श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर स्वयं विराजमान हैं वहां दूसरे शूरवीरोंकी प्रशंसा करना योग्य नहीं है । मेरुपर्वत और सरसोंके दानोंमें जितना अन्तर होता
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