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प्रगम्न २८८
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माता पिताके सुखका तो कहना ही क्या है ? रुक्मिणीको प्रसन्नचित्त देखकर और अपना मनोरथ, सफल हुश्रा समझकर नारदजी भो सुखी हए ।१२-१३। सत्यभामाके दुःखको देखकर तो उन्हें और || चरित्र भी अधिक संतोष हुया ! विवाहादि कार्य होजानेपर वे प्रसन्नतासे अपने इच्छित स्थानको चले गये।१४।
इसके पश्चात् पिताकी भक्तिके भारसे नम्र, सुखसागरके मध्यमें विराजमान, देवोंद्वारा सेवनीय देवपूजा गुरुसेवा प्रादि छह कर्मों में तत्पर और स्त्रियों के मुखरूपी कमलोंपर भ्रमरोंके समान गुजार करनेवाला प्रद्युम्नकुमार श्रानन्दयुक्त रहकर अपने जाते हुए समयको नहीं जान सका। अर्थात् सुख ही सुखमें उसे नहीं मालूम हुआ कि कितना समय बीत गया ।१५-१६।
तदनन्तर सत्यभामाने जो कि, प्रद्युम्नकुमारके विवाहको देखकर दुःखसे बहुत प्राकुल हुई || थी-दुःखके समुद्र में डूब रही थी, सुन्दर रूप गुण आदि सब लक्षणोंवाली अनेक कन्याओंको मंगनी करके वुलवायीं और उनका भानुकुमारके साथ विवाह कर दिया। सो माताका परमभक्त तथा गुणवान भानुकुमार भी उन स्त्रियों के साथ उत्कृष्ट सुख भोगने लगा।१७-१९।
सारी पृथ्वीमें प्रद्युम्नकी कीति फैल गई। नगर में, चौराहे में जहां तहां प्रद्युम्नकी कथा सुनाई पड़ती थी।२०। यह कीर्ति उस बलवानने अपने पुण्यके प्रभावसे प्राप्त की थी। क्योंकि संसार में जो कुछ चिन्तनीय तथा अमूल्य पदार्थ हैं, वे सब पुण्य हेतुज हैं, अर्थात् पुण्यसे ही प्राप्त होते हैं ।२१। स्वजनोंसे मिलाप होना, चिन्तित पापरहित तथा उत्तम अर्थकी प्राप्ति होना, और रात दिन देव तथा मनुष्योंसे संवित होना, ये सब पुण्यरूप वृत्तके फल हैं ।२२। धमसे अनेक प्रकारके पवित्र सुख मिलते हैं, धर्मसे निर्मल कीर्ति होती है, धर्मसे ही स्वजनों की मज्जनता, रिपुत्रोंका क्षय, विद्या विवेकादि प्राप्त होते हैं, और धर्म ही संमारके क्लेश आदि तापोंके हरण करनेके लिये सोम अर्थात् चन्द्रमाके ममान सौम्य है, इसलिये हे बुद्धिमानों! जिन भगवानके कहे हुए अतिशय कल्याणरूप
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